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________________ -२वाणी के चतुर्विध-रूप सामान्य रूप से वाणी का विश्लेषण करना बड़ा कठिन है। प्रायः सभी धर्मों में वाणी की महत्ता स्वीकार की गई है । वैदिक काल में वाणी का गौरव वेदों के अध्ययन से भली-भाँति जाना जा सकता है, परन्तु इतनी बात अवश्य है कि यहाँ वह बड़ी गूढ तथा रहस्यमय है । ब्राह्मणकालीन युग में इसका स्वरूप कुछ स्पष्ट हो गया है, क्योंकि यह युग यज्ञ-याग प्रधान है । पुनर्जागरण का है और यहाँ वाणी अपना स्वरूप स्पष्ट करती हुई दिखाई देती है। यहीं वाणी का वाक् तथा वाग्देवी के साथ तादात्म्य स्थापित हो गया है-'वाग्वं सरस्वती' । यहाँ मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधार पर वाणी के विवेचन का भी आभास मिलता है । वाणी (वाक्) मनरूप है तथा मन का व्यक्तरूप ही वाणी है । मन अपने साम्यावस्था में 'रस' तथा 'बल' से परिपूर्ण शान्त रहता है । उस समय उसमें कोई प्रक्रिया नहीं होती है, लेकिन जिस समय मन में किसी विचार के प्रकटीकरण की तनिक भी इच्छा जागृत होती है, वह मन ही श्वास में परिवर्तित हो जाता है । जब बलाधिक्य तीव्र होता है, तब वह वाक् (वाणी) के माध्यम से व्यक्त हो जाता है । वाक की विशद् विधिवत् विविध व्याख्या शतपथ, गोपथ, ताण्ड्य, ऐतरेय, शाखायन, तैत्तिरीय, ऐतरेयारण्यक आदि में की गई है। ___ औपनिषदिक काल में वाणी का दार्शनिक रूप लक्षित होता है । यहाँ यह श्वास का रूप धारण करती हुई इडा, पिङ्गला तथा सुषुम्ना के माध्यम से 'योगविद्या' को जन्म देती है । हम ने पहले बताया है कि वाणी (वाक्) श्वास का प्रस्फुटित रूप है। श्वास के संयमन से मनुष्य अल्पायु तथा दीर्घायु है । योग-विद्या में इसी श्वास-प्रक्रिया को इडा, पिङ्गला तथा सुषुम्ना द्वारा संचालित किया जाता है। __ पौराणिक युग में वाणी (वाक्) का विविध रूप लक्षित होता है । इस युग में वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है । वह वाग्रूप भी है तथा उसे अनेक उपाधियों से विभूषित किया गया है। ऋग्वैदिक काल में वाक तथा उस की देवी का स्वरूप अस्पष्ट है । यहाँ दोनों का सम्बन्ध निश्चित करना बड़ा कठिन है । वाक् की सत्ता कहीं नितान्त स्वतंत्र दिखाई देती है, तो कहीं उस को देवी की इयत्ता अलग है । यहाँ बहुत सी देवियाँ हैं, जिनमें मुख्य अदिति , कुहू', सिनीवाली, राका", इन्द्राणी, वरुणानी', ग्ना:१२, पृथ्वी" तथा पुरन्धी १५ हैं । इन में से एक दूसरे का पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये अपने-अपने क्षेत्र की प्रधान देवियाँ हैं तथा इन का आवाहन सरस्वती के साथ कतिपय ऋग्वैदिक मन्त्रों में स्वतंत्र रूप से हुआ है।
SR No.032028
Book TitleSanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuhammad Israil Khan
PublisherCrisent Publishing House
Publication Year1985
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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