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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
गया है । ११५ ऐतरेय ब्राह्मण में भी सरस्वती को पावका तथा धियावसुः कहा गया है तथा इन दोनों की वाक् से तादात्म्यता प्रस्तुत की गई है : "पावका नः सरस्वती यज्ञ ं वष्टु धियावसुरिति वाग्वं धियावसुः ।'
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(च) शाङखायन - ब्राह्मण - यह ब्राह्मण सरस्वती को वाक् से समीकृत करता है । इसका कथन है कि दार्शपौर्णमासी के अवसर पर जो सरस्वती की स्तुति करता है, वह वाक् को प्रसन्न करता है : "यत् सरस्वतीं यजति वाग्वै सरस्वती वाचमेव तत् प्रीणात्यथ"
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(छ) तैत्तिरीय ब्राह्मण - इस ब्राह्मण में भी सरस्वती के कुछ सुन्दर सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं ।"" यहाँ प्रजापति का तादात्म्य यज्ञ तथा वाक् से उपलब्ध होता है ।"" शतपथब्राह्मण के अनुसार इस प्रजापति को प्राण तथा वाक् से संयुक्त दिखाया गया है । वाक् प्राणों (मन, श्वास आदि) का प्रकटीकरण है । ब्राह्मणों के अनुसार वाक् सरस्वती है तथा यह सरस्वती प्राणों से बढ़ कर है : " वाग्वै सरस्वती तस्मात्प्राणानां वागुत्तमम् ।'
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१,१२१
लौकिक - साहित्य में 'गिरा' शब्द का प्रयोग मिलता है, जो गिर से निष्पन्न है । गिरा उसे कहते हैं, जो मानवीय ध्वनि को अपनाने में समर्थ है । १२१ लौकिकसाहित्य में सरस्वती को गिरा की संज्ञा दी गई है, क्योंकि वह मानवोच्चारित वाक् का प्रतिनिधित्व करती है । लौकिक साहित्य में सरस्वती का मानवोच्चारित वक् जो तादात्म्य उपलब्ध होता है, उसका बीज अथवा सङ्केत स्वयं ब्राह्मणों में उपलब्ध होता है । गिरा वस्तुतः वाणी अथवा रसना को कहते हैं । इसका एक पर्यायवाची शब्द जिह्वा है, जो वाक् के प्रकटीकरण का साधन है तथा साथ-साथ वाक् का उच्चारित रूप भी । इस जिह्वा शब्द का प्रयोग शतपथब्राह्मण में भी उपलब्ध होता है । ११३ इस प्रकार प्रकृत सन्दर्भ में कुछ अवलोकनीय बातों पर दृष्टिपात किया गया है, जिन्हें अन्यत्र सविस्तार समझने तथा समझाने की अपेक्षा है ।
११५. ऋ० १.३.१०
११६. ऐ० आ० १.१४
११७. शा० ब्रा० ५.२
११८. तै० ब्रा० १.३.४.५;३.८.११.२
११६. वही, १.३.४.५
१२०. तु० शतपथब्राह्मण हिन्दी - विज्ञान भाष्य सहित, भाग २, पृ० १३५३ १२१. तै० ब्रा० १.३.४.५
१२२. मोनियर विलियम्स, पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० २८६
१२३. श० ब्रा० १२.६.१.१४ “जिह्वा सरस्वती"