________________
४३
परिच्छेद.] भवदत्त और भवदेव. विविध प्रकारके अभिग्रहोंको धारण करता हुआ घोर तपस्यायें करने लगा और आचार्य महाराजकी सेवामें रहकर विनयपूर्वक विद्याभ्यास करने लगा । गुरुमहाराजकी कृपासे 'सागरदत्त' थोड़ेही समयमें श्रुतसागरके पारको पा गया । एक दिन दुस्तप तपस्या करते हुए 'सागरदत्त' मुनिको अधिक ज्ञान उत्पन्न हुआ, शास्त्रमें भी कहा है कि न दूरे तषसः किश्चित् । इधर ‘भव-- देव' का जीव सौधर्म देवलोकसे देवसंबंधि आयुको पूर्ण करके महाविदेह क्षेत्रमें पूर्वोक्तही पुष्कलावती विजयमें और वीतशोका 'नामकी नगरीमें 'पद्मरथ' राजाकी रानी 'वनमाला' की कुक्षीमें पुत्रपने उत्पन्न हुआ, मातापिताने उस पुत्रका नाम 'शिवकुमार' रक्खा । अब अनेक प्रकारके प्रयत्नोंसे 'शिवकुमार' का पालनपोषन होता है । इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त होता हुआ 'शिवकुमार' कलाभ्यास करनेके योग्य हुआ । मातापिताने 'शिवकुमार' को कलाभ्यास करनेके लिए कलाचार्यके पास छोड़ दिया, 'शिवकुमार' प्रज्ञावान होनेसे थोड़ेही समयमें सर्व कलाओंमें प्रवीण होगया। 'शिवकुमार' को योवनावस्था प्राप्त होनेपर 'पद्मरथ' राजाने अच्छे अच्छे कुलोंकी राजकन्यायें परणाई । 'शिवकुमार' उन राजकन्याओंसे ऐसा शोभता है जैसे वर्षाकालमें अनेक प्रकारकी लताओंसे वेष्टित वृक्ष शोभता है । एक दिन 'शिवकुमार' सपरिवार अपने महलपर चढ़ा हुआथा उस समय 'सागरदत्त' महामुनि उस नगरके बाह्योद्यानमें आकर ठहरे हुवेथे । जब 'शिवकुमार' अपने महलपर चढ़कर चारों ओर देख रहाथा सब 'सागरदत्त महामुनि' कामसमृद्ध नामा व्यवहारीके घरपर मासक्षपण पारनेके दिन भिक्षा ग्रहण कररहेथे, सुपाबदामके धमाबसे कामसमृद्ध व्यवहारीके घर आकाशसे मुनयोंकीष्टि हुई।