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परिशिष्ट पर्व.
[पहला 'शिवकुमार' महलपर चढ़ा हुआ यह कार्रवाई देख रहाथा अत एव इस प्रकारकी दान महिमा देखकर साश्चर्य महलसे नीचे उतरा और जहांपर 'सागरदत्त मुनिराज' ठहरे हुवेथे वहांपर गया, वहां जाकर महामुनि ‘सागरदत्त' को सविनय नमस्कार करके राजहंसके समान उनके चरणकमलोंमें बैठ गया । संपूर्ण श्रुतको धारण करनेवाले महामुनि सागरदत्तनेभी सपरिवार शिवकुमारको विश्वोपकारी जिनेश्वर देवका धर्म समझाया और विशेषतः संसारकी असारता दर्शाई, गुरुमहाराजके वचनामृतको पीकर 'शिवकुमार' बोला कि हे भगवन् ! मैंने आजतक बहुतसे साधुजन देखे परंतु आपके मुखारविन्दको देखकर मेरे हृदयमें हर्ष नहीं समाता न जाने कुछ पूर्वभवका संबंध है ? चतुर्दशपूर्वको धारण करनेवाले महामुनि 'सागरदत्त' अपने अवधि ज्ञानसे जानकर बोले हे कुमार! पूर्वभवमें प्राणोंसेभी अति प्रिय तू मेरा छोटा भाई था । मैंने तुझे अनिछितकोभी संसारके दुःखोंसे बचानेके लिए भवसागरसे तारनेवाली दीक्षा दी थी, उस दीक्षाके पालनेसे हम दोनोंही सौधर्म देवलोकमें याने प्रथम देवलोकमें परमर्द्धिवाले देव हुए और वहांपरभी हमारी दोनोंकी गाढ प्रीति रही। अब इस भवमें मैं स्व और परके विषय समान दृष्टिवाला हूँ
और तुझे सरागवान होनेसे पूर्वभवके संबंधसे मेरे ऊपर स्नेह पैदा होता है। ..
___ 'शिवकुमार' महात्मा 'सागरदत्त' के मुखारविन्दसे अपना पूर्वभवसंबंध सुनकर हाथ जोड़कर बोला कि हे भगवन् ! जैसे पूर्वभवमें आपने मुझे दीक्षा देकर संसार संबंधि विषयरूप कीचड़ से निकाला था वैसेही अब भी दीक्षा देकर मुझे कृतार्थ करो, 'सागरदत्त मुनि' बोले, यदि दीक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा है