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४२ परिशिष्ट पर्व.
दूसरा *सागरदत्त' विचारता है कि अहो मेरे देखते देखतेही ऐसा मनोहर मेघमंडल पानीके बुबुदके समान नष्ट हो गया । किसीदिन इस -विनश्वर शरीरकाभी यही हाल होगा और चपलाके समान स्वभाववाली संपत्तिका तो कहनाही क्या? जो रंग प्रातःकाल देख पड़ता है वह मध्यान समय नहीं नजर आता और जो मध्यानमें देखते हैं वह संध्या समय नहीं, इसतरह प्रत्यक्षमेंही संसारके पदार्थोंकी अनित्यता देख पड़ती है । इस असार संसारमें कोईभी पदार्थ सार गर्भित तथा नित्य नहीं । अत एव संसार कारागारसे निकलकर विवेक जलसे सिंचित किये हुए मनुष्य जन्मरूपक्षका यतिव्रतरूप फल ग्रहण करूँ । 'सागरदत्त' ने इस प्रकार' परम वैराग्य रसमें मग्न होकर दीक्षा ग्रहण करनेके लिए हाथ जोड़कर अपने मातापितासे आज्ञा माँगी। 'सागरदत्त' की बात सुनकर 'बजदत्त' राजा बोला कि हे पुत्र! इस वक्त तेरा दीक्षा ग्रहण करना ऐसा है जैसा कि नाटारंगके समय वेदका पढ़ना, क्योंकि इस समय तू युवराजपदवीको विभूषित करता है और थोड़ेही दिनोंमें इस साम्राज्यका मालिक तूही है अत एव राज्यलक्ष्मीको भोगकर व्रत ग्रहण करना उचित है । 'सागरदत्तकुमार' बोला कि पिताजी मैंने राज्यलक्ष्मीका त्याग किया है मुझे राज्यलक्ष्मीसे कुछ काम नहीं मेरे लिए यही राज्यलक्ष्मी है आप कृपा कर मुझे दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दें, मैं संसाररूप कीचड़में फँसना नहीं चाहता । इस प्रकार 'सागरदत्त' के आग्रहरूप कुठारने 'राजा व्रजदत्त' तथा 'यशोधरा' के प्रेमरूप वृक्षको छेदन करबाला, राजाने बड़ी मुस्किलसे 'सागरदत्त' को दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दी । अनेक राजपुत्रोंके साथ 'सागरदत्त' ने श्री सागराचार्य महाराजके पास दीक्षा ग्रहण की। अब 'सागरदत्त मुनि'