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परिच्छेद . ]
भवदत्त और भयदेव.
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खबर है ? फिर यहां कभी आयेंगे या नहीं और झोली के भारसे इन्होंने मेरे हाथमें यह घीका पात्र दिया है यदि मैं इस समय इस घीके पात्रको इन्हें देकर घरपर चला जाऊँ तो यह सर्वथाही अनुचित है । इसलिए इनके स्थानपरही छोड़कर पीछे फिरना योग्य है ' भवदेव' इस प्रकारके संकल्पविकल्प करही रहाथा इतनेमेंही यह पीछे लौट न जाय यह समझकर 'भवदत्त' सुनिने गृहस्थपनेकी बातें शुरु कर दीं और कहने लगा कि हे भवदेव ! ये वेही वृक्ष हैं जिनपर हम तुम चढ़कर वानरके समान क्रीड़ा किया करते थे । ये वेही सरोवर हैं जहांपर हम दोनोंही बचपन में कमलनियों के हार बनाकर अपने गलेमें पहनतेथे और यह गाँव पर्यन्तकी वही भूमि है जहांपर बाल्यावस्थामें हम दोनों वालूरेतके मकान बनाकर क्रीड़ा किया करतेथे । 'भवदत्तर्षि' रस्तेमें इस प्रकारकी बातों में लगाकर अपने छोटे भाई . ' भवदेव' को वहांतक ले आया जहांपर सब साधुओं सहित आचार्य महाराज विराजमान थे, छोटे भाईको साथमें लिए हुए ' भवदत्तर्षि' को दूरसे आता देखकर वसतिके दरवाजे में खड़े हुए क्षुल्लक (छोटे) साधु खुशी से मुस्कराकर परस्पर बोले कि देवकुमार के समान अपने भाईको दीक्षा देनेके लिए ले तो आये धन्य है इन महात्माओंको, इन्होंने जैसा कहाथा वैसाही कर दिखाया, उसके छोटे भाई 'भवदेव' को देखकर आचार्य महाराज 'भवदत्त' मुनिसे बोले कि हे ' भवदत्त ।" यह युवा पुरुष तुमारे साथ कौनआया है ? ' भक्दत्त' बोला कि भगवन्! दीक्षा लेनेकी इच्छा वाला यह मेरा छोटा भाई है । आचार्य महाराजने 'भवदेव' से पूछा- क्यों भद्र! दीक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा है ? ' भवदेव' ने सोचा कि यदि मैं इस बक्त गुरुमहाराज के सामने इन्कार करूँ तो
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