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३२ परिशिष्ट पर्व.
[पहला शीघ्रही भाईके दर्शन करने चल पड़ा, उस वक्त 'भवदेव' को बहुतसी स्त्रियोंने बाहर जानेसे रोका और यह कहा कि हे 'भवदेव' ?
इस प्रकार अर्धमंडितवधूको छोड़कर तुमारा बाहर जाना उचित नहीं, परंतु 'भवदेव' ने बधिरके समान उनका एकभी वचन न सुना । मैं अपने बड़े भाई 'भवदत्त' महामुनिको वंदन करके अभी पीछे आता हूँ यह कहता हुआ मृगके समान छाल मारता हुआ उन स्त्रियोंके बीचसे शीघ्रही निकल गया
और जहांपर 'भवदत्त' मुनि खड़ा था वहां जाकर उनके पैरोंमें पड़के भक्ति सहित नमस्कार किया । अनगारशिरोमणि 'भवदतर्षि' अपने छोटे भाईको देखकर बोला कि हे 'भवदेव' ? मेरी झोलीमें बहुत भार होगया है इसलिए थोड़ी दूर तक यह पात्र पकडले यों कह 'भवदेव' के हाथमें घीका भरा हुआ पात्र दे दिया और स्वजनोंको धर्मलाभ देकर वहांसे चल निकला । 'भवदेव' भी घीसे भरे हुए पात्रको हाथमें लेकर भाईके साथ साथ चल पड़ा, औरभी बहुतसे स्त्री पुरुष 'भवदेव' के समानही मुनिराजके पीछे चल पड़े मुनिनेभी उन्हें पीछे जानेके लिए न कहा क्योंकि उनको यह उचितही था इसलिए उन जनोंमेंसे कोईभी आदमी पीछे न फिरा परंतु गाँवसे कुछ दूर जाकर मुनिराजको वंदन करके स्वयमेवही लोग पीछे फिरने लगे इस प्रकार सबही स्त्री-पुरुषोंको पीछे लौट जानेपर भद्रात्मा 'भवदेव' विचारने लगा कि विनाही विसरजन किये ये लोग पीछे जारहे हैं परंतु मुझे इस प्रकार भाईको छोड़कर पीछे जाना उचित नहीं क्योंकि एक तो ये मेरे सगे भाई हैं और मेरे ऊपर परम स्नेह रखते हैं दूसरे इनका घने दिनोंमें यहां आना हुआ है । अब