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परिशिष्ट पर्व. [पहला रणी" गर्भकी व्यथाको सहन करती हुई समयको व्यतीत करती है नव मास पूर्ण होनेपर धारणीने कांतिसे सूर्यके समान तेजोमय पुत्रको अपने आश्रममें जन्म दिया, उस वक्त वहांपर वस्त्र न होनेसे सोमचंद्र तापस जंगलमें जाकर वृक्षोंकी वल्कल (छाल) ले आया
और उस वल्कलसे लपेट कर उस बालकको बड़ी हिफाजतसे रक्खा और इसी लिए सोमचंद्रने उस वालकका नामभी वल्कलचीरी रक्खा ।
वल्कलचीरीके उत्पन्न होते समय "धारणी" की कुक्षीमें दुस्सह्य वेदना होने लगी परंतु उस निर्जन जंगलमें बिचारा सोमचंद्र, कहांसे तो डाक्टर और कहांसे दवा लासकता था, "धारणी" का शरीर बड़ा सुकुमार था अत एव वह इस दुस्सह्य व्यथाको सहन न करसकी, पैदा होतेही बिचारे वल्कलचीरीपर दैवने ऐसा कोप किया कि बिचारी धारणीके प्राण हरन कर लिये अब मृत मा. तक वल्कलचीरीको पालन करनेके लिये सोमचंद्र तापसने एक तापसनी धात्रीको देदिया परंतु विचारे वल्कलचीरीपर दुर्दैवका ऐसा कड़ा कोप था कि उसको पालन करनेवाली वह तापसीभी थोड़ेही दिनोंमें काल करगई, अब सोमचंद्र तापस स्वयं उस बालकको बड़ी हिफाजतसे रखता है जब उसको भूख लगती है तब गायका दूध मँगाकर पिलाता है और उसे हर वक्त अपने साथही रखता है, पिताके इस तरह पालनेसे वल्कलचीरी कुछ दिनोंमें "अमके खाने योग्य होगया । अब बालक वल्कलचीरी सारे दिन
भर मृगोंके बच्चोंके साथ क्रीडा करता है और सोमचंद्र जंगलमें 'जाकर नीवर नामके धान्य (तृणधान्य) कोलाकर स्वयं रसोई बनाकर उसको जिमाता है, इसतरह सोमचंद्र तापसने, मौवोंके द्ध, बनधान्य तथा वन फलादियोंसे पोषण करके उस वल्कलचीरको