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परिच्छेद.] प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी. ११ योबन अवस्थाके सन्मुख किया, अब वल्कलचीरांभी अपने पिता सोमचंद्रकी सेवा करनेमें बड़ा प्रवीण होगया. जंगलमें जा कर पिताके लिए पके हुए मधुर मधुर फलादि ले आता है, और पाँव दबाना विगैरह वैयावचभी बड़ी अच्छीतरह करता है, वल्कलचीरी जन्मसेही सर्वोत्तम ब्रह्मचर्य व्रतको धारण करनेचाला था क्योंकि उस जंगलमें पैदा होकर वल्कलचीरीने-स्वीका देखना तो दूर रहा परंतु नाम मात्रभी नहीं सुनाथा अत एव वह इतनाभी न समझता था कि स्वी क्या वस्तु है और किसे कहते हैं । केवल तापसों तथा उस जंगलमें रहनेवाले मृगादि जानवरोंको वर्जके और किसीभी व्यक्तिको न जानता था क्योंके उसने जन्मसे वेही देखेथे । अब इधर प्रसन्नचंद्रका हाल मुनो जिप्सको कि बचपनमेंही सोमचंद्रने राजगदीपर बैठाके तापसव्रत ग्रहण कर लियाथा । वह प्रसन्नचंद्र अपने शुभ. कर्मके प्रभावसे थोड़ेही दिनों में बड़ा होशियार और राज्यकार्यमें प्रवीण होगया बचपनसेही दयालू तथा जितेंद्रिय हुआ। प्रसन्नचंद्र एक दिन अपनी राजसभामें बैठा हुवा था उस वक्त बाहिरसे एक आदमीने आकर उसके पिता सोमचंद्र तथा लघु भ्राता वल्कलचीरीका वृत्तान्त कह सुनाया। प्रसन्नचद्रं सुनकर बड़ा खुशी हुवा और अदृष्ट अपने लघु भ्राता वल्कलचीरीसे मिलनेकी उत्कंठा बढने लगी। वल्कलचीरीके गुणोंको सुनकर राजा प्रसनचंद्रके हृदयरूप समुद्रमें प्रेमकी बरंगें उठने लगी और पितासेभी अधिक उस अदृष्ट छोटे भाईको देखनेकी अत्यन्तही उत्कंठा बढ़ गई परंतु उससे मिलनेका कोईधी उपाय न देखकर शहरमेंसे एक बड़े चतुर चित्रकारको बुलवाया और उसे आज्ञादी कि जो पिता सोमचंद्रके पाद फ्योंसे पवित्र वन है वहां जाकर पिताके चरण कमलोंमें इसके समान मेरे छोटे