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परिच्छेद . ]
प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी.
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देनेवाले और सर्व सुखोंकी खान कल्याणके निदान भगवानश्री महावीर स्वामी आ पधारे, और उस नगरके बाह्योद्यानमें देवता - ओंने चाँदी, सुवर्ण और रत्नमय इन तीन प्रकारके प्राकारोंसे विभूषित समवसरणाकी रचना की, भगवान श्रीमहावीरनेभी पूर्वके दरवाजेसे प्रवेश करके समवसरणके वीचमें जो “देवछंद" में सिंहासन था उसको अपने चरणकमलोंसे ऐसा विभूषित किया जैसे कि, राजहंस कमलको करता है और श्री चतुर्विध संघभी यथा योग्य स्थानपर बैठ गया.
भगवान श्री महावीर स्वामीने कर्मरूप तापसे तपे हुए संसारवासि जीवोंके लिए वर्षाकालके मेघ के समान वाणी से धर्म देशना प्रारम्भ की इधर राजगृह नगर के रहनेवाले वनपालने श्री महावीर स्वामीका समवसरण देखकर राजगृह नगर में जाकर श्रेणीक राजाके दरबार में त्रैलोक्यनाथ भगवान श्री महावीर स्वामी के आनेकी बधाई दी. श्रेणिक राजानेभी परमोपकारी भगवान श्री महावीर स्वामीका आगमन सुनकर फनसके फलके समान रोमांचित होकर और अपने सिंहासन से नीचे उतरके भगवानका मनमें ध्यान कर भूमिपर मस्तक लगाकर भक्तिपूर्वक श्री महावीर स्वामीको नमस्कार किया और उस आदमीको बहुतसा दान दिया. अब धर्मात्मा श्रेणिक राजा बड़े उत्साहसे भगवान श्री महावीर स्वामीको बन्दन करने जानेकी तैयारी करने लगा और नौकरोको हुक्म कर दिया कि हमारी सवारी तैयार करो - आप वन्दन यात्राके योग्य वस्त्र तथा आभरण धारण करने लगा. इतनेमें हाथी, घोड़े, रथादि तैयार करके नौकरोंने दरबारमें खबर दी कि आपकी सवारी तैयार है. राजा उसी वक्त भद्रकुंजर नामके हाथीपर चढ़ गया और उस हाथीपर चढ़ा हुआ
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