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परिशिष्ट पर्व... पहला राजा ऐसा शोभने लगा जैसा कि प्रातःकालमें उदयाचलपर सूर्य शोभता है. हाथियोंके घंटोंके तथा घोड़ोंके हीसनेकी आवाजसे मानो शब्दाद्वैत होरहाथा. इसतरह अनेक प्रकारकी ऋद्धिके साथ त्रैलोक्यनाथको वन्दन करनेकेलिए मगधाधिपति "श्रेणिक" चल पड़ा. रास्तेमें अनेक प्रकारके बाजे बजते हुए जारहे हैं. कितनेक सैनिक आगे तथा कितनेक पीछे बीचमें इंद्रके समान राजा है और दो अग्रेसरी सेनापति सबसे आगे जारहेथे उन्होंने आगे जाते हुए रस्तमें एक पाँवसे खड़े हुए दोनो भुजा ऊपरको उगये और सूर्यके सामने दृष्टि लगाये हुए एक शांत मूर्ति मुनिको देखा और देखकर उनमें से एक जना बोला कि अहो धन्य है इस महात्माको !! देखो कैसी कड़ी तपस्या कर रहा है. पहले तो एक पाँवके आधारसे खड़ा होनाही दुष्कर है फिर सूर्यके सामने निश्चल दृष्टि लगाकर कौन खड़ा होसकता है ? बस इस महा धैर्यवान महात्माको स्वर्ग तथा अपवर्गके सुख कुछभी दूर नहीं क्योंकि कहाभी है कि-भूयसा तपसा किं किं नासाध्यमपि साध्यतेयह बात सुनके दूसरा बोला. अरे भाई क्या तुम इसको नहीं जानतें ? यह तो राजा प्रसनचंद्र है और इसकी सबही तपश्चर्या व्यर्थ है क्योंकि इसने अपनी राजगद्दीपर अपने एक छोटेसे लड़केको बैठाकर मंत्रियोंको सारसंभाल करनेकी आज्ञा देकर दीक्षा ग्रहण करली मगर अब वेही मंत्रिलोग उस लड़केको मारके राज्य लेनेकी तैयारी कर रहे हैं और उस लड़केके मारे जानेपर इसके पूर्वजोंका वंश सर्वथा निर्मूल होजायगा और इसकी जो त्रियां हैं उन बिचारी अबलाओंकी न जाने क्या गति होगी? अतएव हे भाई यह विना बिचारे कार्य करनेसे धर्मी नहीं किंतु उलटा पापका भागी है. उन दोनोंही सैनिकोंके मुखसे यह कथन