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परिशिष्ट पर्व.
[पहला
और नगर विद्याधरोंके नगरोंके समान हैं । उस देशकी भूमि तो ऐसी रसाल है कि, सर्व प्रकार के पाक वहांपर होते हैं । दुक्षिका तो वहां कोई नामतकभी नहीं जानता वह देश धनधान्यादिसे परिपूर्ण है । वहां वर्षाभी समयपरही होती है । परन्तु असमय नहीं, वहांकी गौऐं तो मानो कामधेनु केही समान हैं । अर्थात् वह देश सर्व सौख्य संपन्न है । उस देशकी प्रजा रोगरहित, परमायुषवाली, धर्ममें रक्त होकर तीनोंही वर्गको साधती है । उस देशमें अमरावती समान " राजगृह" नामका एक नगर है, उस नगरमें बडेही मनोहरप्रासाद हैं और वर्षाकालमें जिनेश्वर देव मंदिरोंपर सुवर्णके दंडवाली ध्वजायें पवनसे उडती हुई मानो विजलीका हास्यपूर्वक तिरस्कार करती हैं । वहां पर जिन - धर्मका ऐसा तो साम्राज्य है, कि वहांकी स्त्रियां अपनी क्रीडाके लिये जो पाले हुये तोते हैं, उनकोभी अपने २ घरों में श्रीजिनेश्वर देवकी स्तुति पढाती हैं । उस नगर में अपनी भुजाबलसे शत्रुओंको परास्त करनेवाला और न्यायको पालन करनेवाला " श्रेणिक " नामका राजा राज्य करताथा । उसके हृदयरूप मंदिर में सम्यक्त्वरूप रत्नके प्रकाश से मिथ्यात्वरूपान्धकारको ठहरनेकेलिये लेशमात्रभी अवकाश न था, और उसके औदार्य, धैर्य, गांभीर्य, और शौर्यादि गुणोंका कीर्तन देवलोक में भी देवाङ्गनायें किया करतीथीं. और वह अपनी प्रजाको संतानके समान पालना करताथा परंतु शत्रु तथा कुकर्मियोंके लिए तो यमराजके तुल्यही था अर्थात शत्रु राजा उसकी आज्ञाको ऐसी पालन करतेथे कि जैसे इंद्रकी आज्ञा देवता पालते हैं. इसतरह उसकी अखंडाज्ञा प्रवर्तते हुए कुछ समय बीत गया. एक दिन बहुतसे सुरासुरोंके सहित साधुसमुदाय के साथ तीन लोकके जीवोंको अभयदान