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परिशिष्ट पर्व. [आठवाँ मत करो उसका नूपुर दे दो । 'देवदत्त' बोला-भाई ! तू क्यों जोसमें आता है, मैं सच कहता हूँ यह असती है जब मैंने उसके पाँवसे 'नूपुर' निकाला था तब तू अन्दर बरामदेमें सोरहा था, मैं अपनी आँखोंसे देखके पीछे नूपुर निकाला है । जब इस प्रकार पिता-पुत्रका परस्पर संवाद होरहा था तब 'दुर्गिला' भी वहांपर आ पहुँची और कहने लगी कि इस मिथ्या कलंकको मैं कभी भी सहन न करूँगी क्योंकि कुलीना स्त्रियोंको कथन मात्र दोषारोपण भी श्वेत वस्त्रमें 'मषी बिन्दुके समान होता है । अत एव मैं इस दोषारोपणको न सहन करके दैविक क्रियासे अपने शीलका महात्म्य दिखलाऊँगी।
___'राजगृह' नगरके समीप एक 'शोभन' यक्षका मन्दिर था उस मन्दिरमें उसकी मूर्ति थी, मूर्तिका यह प्रभाव था जो दोषित आदमी होता था वह उसकी जंघाके नीचेसे निकलता हुआ फँस जाता था और जो निर्दोष होता था वह उसकी जंघाके नीचेसे साफ निकल जाता था।
'दुर्गिला' बोली-शोभन यक्षकी जंघाके नीचेसे निकल कर मैं सारे नगरको अपने अखंड शीलका प्रभाव दिखलाऊँगी, यदि मेरे अन्दर लेशमात्र भी दोष होगा तो मैं उसकी जंघाके नीचेसे न निकल सकूँगी। यह बात 'देवदत्त' ने मंजूर कर ली कि जरुर ऐसाही होना चाहिये, देखो इससे शीलकी कैसी परिक्षा होती है । 'दुर्गिला' ने अपने जारको कहला दिया कि जब मैं शोभन यक्षकी पूजा करनेको जाऊँ तंब तुमने पागल बनके मेरे गलेमें लिपट जाना । 'दुर्गिला' स्नान कर पूजाकी
१ स्याही.