________________
१०७
परिच्छेद.] नूपुर पंडिता. सामग्री ले बहुतसे स्वजनोंके साथ यक्षराजकी पूजा करने चली। रास्तेमें पूर्व संकेतित उसका जार फिर रहा था, 'दुर्गिला' को देखके पागल बनकर कवर्गके समान झट उसके गलेमें लिपट गया, लोगोने पागल समझकर उसे छुड़ा दिया । 'दुर्गिला'ने फिरसे स्नान करके पूजाकी सामग्री लेकर 'शोभन' यक्षकी पूजा की और हाथ जोड़कर बोली-हे यक्षराज! यदि मैंने आजतक अपने पति और इस पागल आदमीके सिवाय अन्य पुरुषसे अंग स्पर्श भी किया हो तो बेशक मुझे अटकाना और जो इन दो पुरुपोंके सिवाय अन्य पुरुषको संस्पर्श न किया हो तो सर्व जनसमुदायके समक्ष प्रसन्न होकर मुझे शुद्धिदायक हो । 'दुर्गिला' इस प्रकार कहकर यक्षकी जंघा नीचेसे निकलनेको चल पड़ी । 'यक्षराज' विचारमें पड़ गये कि अब क्या करना चाहिये ? यह स्त्री अवश्य दोषित है परन्तु इसने मुझे ऐसे वाक्योंसे बाँध लिया है कि छोड़ दूँ तो भी ठीक नहीं और न छोडूं तो भी ठीक नहीं। 'यक्षराज' इस विचारमेंही पड़े हुवे थे इतनेमें तो 'दुर्गिला' शीघ्रही उसकी जाँघके नीचेसे निकल गई । 'दुर्गिला' की शील परिक्षा होजानेपर वहां खड़े हुए जनोंके मुँहसे एकदम 'महासती महासती' यह शब्द उद्घोषित हो उठा और राजाआदि प्रधान पुरुषोंने उसके गलेमें फूलोंकी माला डाली । बड़ी धूमधामसे उसे नगरमें प्रवेश कराया गया । 'दुर्गिला' की छल भरी शील परिक्षासे नगरवासियोंके मनमें यह निश्चय बैठ गया कि 'दुर्गिला' के समान अखर्व गर्वा महासती शायदही नगरमें हो। नूपुर उतारनेसे जो कलंक लगा था, उस नूपुरजन्य कलंकको दूर करनेसे उस दिनसे लेकर 'दुर्मिला' का नाम नगरमें 'नूपुर पंडिता' प्रसिद्ध होगया । स्वजन संबंधि भी इसी नामसे पुकारने लगे । ब