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परिच्छेद.] नूपुर पंडिता.
१०५ साथ सोते हुवे समयकी तो बातही क्या ? यह कितनी धृष्टताकी बात है मुझे कहते हुवे भी लज्जा आती है परन्तु उन्हें ऐसा नीच कर्म करते हुवे भी लज्जा न आई ?।
'देवदिन' वोला-यह तो बड़ा. अनुचित्त काम हुआ, क्या बुड्ढेकी अक्कल मारी गई है, प्रातःकाल होनेपर में पिताको अच्छीतरह धमकाऊँगा ऐसा कार्य करना तो सर्वथा अयोग्य है। 'दुर्गिला' बोली इसमें सुबहका क्या काम है ? ऐसे अनुचित कार्यमें तुरतही ठपका देना चाहिये । 'देवदिन्न' बोला यह समय ठपका देनेका नहीं है तू निःसंदेह रह मैं अवश्य तेरे पक्षमें हूँ
और तेरे सामनेही प्रातःकाल पिताको आक्षेपपूर्वक उलाँभा दूंगा। 'दुर्गिला' बोली-स्वामिन् ! जैसा इस समय बोल रहे हो वैसाही प्रातःकाल करना, 'दुर्गिला' ने इस प्रकार अपने ऐबको छिपाकर बिचारे बुद्रुके माथे कलंक रख दिया । देखो दुनियांकी विचित्रता उलटा चोर कोतवालको दंडे । प्रातःकाल होनेपर स्त्रीप्रधान 'देवदिन' अपनी शय्यामेंसे उठके पिताके पास गया
और तौरी चढ़ाकर बोला-पिताजी ! आपको ऐसा कुत्सित कर्म करते हुए शर्म नहीं आई ? उसके सोती हुईके पाँवसे 'नूपुर' निकाल लिया, तुम्हें यह क्या बुढ़ापेमें सूजा? ..
'देवदत्त' बोला-भाई ! यह तो दुःशीला है रात मैंने इसे परपुरुषके साथ सोती हुई अशोकबाड़ीमें देखा है और तुझे विश्वास करानेके लिएही मैंने नूपुर निकाला है । 'देवदिन्न' बोलाजब तुमने नूपुर निकाला था तब वह मेरे पासही तो सोरही थी. और कौन वहांपर अन्य पुरुष आया था ? ऐसा कुत्सित कर्म करके तुमने मुझे भी लजित किया, उस बिचारी सतीको असतीका कलंक लगाते हो अक्कल ठिकाने है या नहीं ? बस अब ज्यादा बड़ बड़
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