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........- गाथा समयसार
हैं । जो आत्मा अपगतराध है अर्थात् राध से रहित है; वह आत्मा अपराधहै।
और जो आत्मा निरपराध है, वह निःशंक होता है । ऐसा आत्मा ही मैं हूँ - ऐसा जानता हुआ आत्मा सदा आराधना में वर्तता है।
(३०६-३०७) पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो। अप्पडिकमणप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही अमयकुंभो॥
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा। निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं। अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा।
अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्दा अमृतकुंभ हैं। प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और शुद्धि- ये आठ प्रकार के विषकुंभ हैं; क्योंकि इनमें कर्तृत्वबुद्धि संभवित है। ___ अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा,
अगर्दा और अशुद्धि - ये आठ प्रकार के अमृतकुंभ हैं; क्योंकि इनमें कर्तृत्वबुद्धि का निषेध है।
(रोला) बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा,
निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय। उदित हुआ है अपनी महिमा में महिमामय,
अचल अनाकुल अज अखण्ड यह ज्ञानदिवाकर||१९२।। नित्य उद्योतवाली सहज अवस्था से स्फुरायमान, सम्पूर्णत: शुद्ध और एकाकार निजरस की अतिशयता से अत्यन्त धीर-गंभीर पूर्णज्ञान कर्मबंध के छेद से अतुल अक्षय मोक्ष का अनुभव करता हुआ सहज ही प्रकाशित हो उठा और स्वयं की अचल महिमा में लीन हो गया। -समयसार कलश पद्यानुवाद