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मोक्षाधिकार ( २८८ से २९० )
जानता ॥
जह णाम को वि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपडिबद्धो । तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स ।। जड़ ण वि कुणदिच्छेदं ण मुच्चदे तेण बंधणवसो सं । काले उ बहुगेण वि ण सो णरो पावदि विमोक्खं ।। इय कम्मबंधणाणं पदेसठि पयडिमेवमणुभागं । जाणतो वि ण मुच्चदि मुच्चदि सो चेव जदि सुद्धो ॥ कोई पुरुष चिरकाल से आबद्ध होकर बंध के । तीव्र - मन्दस्वभाव एवं काल को हो किन्तु यदि वह बंध का छेदन न कर छूटे तो वह पुरुष चिरकाल तक निज मुक्ति को पाता इस ही तरह प्रकृति प्रदेश स्थिति अर अनुभाग जानकर भी नहीं छूटे शुद्ध हो तब छूटता ॥ जिसप्रकार बहुत काल से बंधन में बँधा हुआ कोई पुरुष उस बंधन के तीव्रमंदस्वभाव को, उसकी कालावधि को तो जानता है; किन्तु उस बंधन को काटता नहीं है तो वह उससे मुक्त नहीं होता तथा बंधन में रहता हुआ वह पुरुष बहुत काल में भी बंधन से छूटनेरूप मुक्ति को प्राप्त नहीं करता ।
नहीं ।
नहीं ।
को ।
उसीप्रकार यह आत्मा कर्मबंधनों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग को जानता हुआ भी कर्मबंधन से नहीं छूटता; किन्तु यदि रागादि को दूर कर वह स्वयं शुद्ध होता है तो कर्मबंधन से छूट जाता है ।