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गाथा समयसार
एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में । विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में | एकत्वनिश्चय को प्राप्त जो समय है, वह लोक में सर्वत्र ही सुन्दर है । इसलिए एकत्व में दूसरे के साथ बंध की कथा विसंवाद पैदा करनेवाली है।
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( ४ ) सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।। सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा । पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥
काम, भोग और बंध की कथा तो सम्पूर्ण लोक ने खूब सुनी है, उसका परिचय भी प्राप्त किया है और उनका अनुभव भी किया है; अतः वह तो सर्वसुलभ ही है; परन्तु पर से भिन्न और अपने से अभिन्न भगवान आत्मा की कथा न कभी सुनी है, न उसका कभी परिचय प्राप्त किया है और न कभी उसका अनुभव ही किया है; अतः वह सुलभ नहीं है।
(५) तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥
निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन ।
पर नहीं करना छल ग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ॥
मैं उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा को निज वैभव से दिखाता हूँ । यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण करना, स्वीकार करना और यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना ।
( ६ ) ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो । एवं भणति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ।।