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गाथा समयसार (पद्यानुवादव अर्थसहित)
पूर्वरंग
(१) वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं।
ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्व-पर हित।
यह समयप्राभृत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित॥ मैं ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त हुए सभी सिद्धों को नमस्कार कर श्रुतकेवलियों द्वारा कहे गये इस समयसार नामक प्राभृत को कहूँगा।
(२) जीवो चरित्तदंसणणाणट्टिदो तं हि ससमयं जाण। पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ।। सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय |
जो कर्मपुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय ॥ जो जीव दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में स्थित हैं; उन्हें स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित हैं; उन्हें परसमय जानो।
(३) एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि।।