________________
बंधाधिकार
( २३७ से २४१ ) जह णाम को वि पुरिसो हब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि । ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ।। छिंदति भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ । सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।। उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किं पच्चयगो दु रयबंधो ।। जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु । रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण ।। ज्यों तेल मर्दन कर पुरुष रेणु बहुल स्थान में । व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से | तरु ताड़ कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे । सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ॥ बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को । परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध किस कारण हुआ । चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने । पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से || बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए । सब कर्मर से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन || जिसप्रकार कोई पुरुष अपने शरीर में तेल आदि चिकने पदार्थ लगाकर