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जीवाजीवाधिकार
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इसीप्रकार जीव में कर्मों और नोकर्मों का वर्ण देखकर जिनेन्द्र भगवान व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि यह वर्ण जीव का है ।
( ६० )
गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य । सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।। इस ही तरह रस गन्ध तन संस्थान आदिक जीव के । व्यवहार से हैं- कहें वे जो जानते परमार्थ को ॥ जिसप्रकार वर्ण के बारे में कहा गया है; उसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदि के बारे में भी समझना चाहिए कि ये सब भाव भी व्यवहार से ही जीव के हैं - ऐसा निश्चयनय के देखनेवाले या निश्चयनय के जानकार कहते हैं ।
( ६१ से ६४ )
तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी । संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ॥ जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ।। अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ।। एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी । णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो ॥
जो जीव है संसार में वर्णादि उनके ही कहे। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं ॥ वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह । तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ? || मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में। तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे ॥