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गाथा समयसार
वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के । परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं है जीव के ॥ ये वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव कहे हैं, वे व्यवहारनय सेतो जीव के हैं; किन्तु निश्चयनय से उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं । (५७)
एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । णय होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।।
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दूध - पानी की तरह सम्बन्ध इनका उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये
जानना । हैं नहीं || यद्यपि इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का दूध और पानी की तरह एक क्षेत्रावगाहरूप संयोग सम्बन्ध है; तथापि वे जीव के नहीं हैं; क्योंकि जीव उनसे उपयोग गुण से अधिक है - ऐसा जानना चाहिए। (५८-५९ )
पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी । मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई || तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।।
पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें । उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का । जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का || जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को लुटता हुआ देखकर व्यवहारीजन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; किन्तु परमार्थ से विचार किया जाये तो कोई मार्ग तो लुटता नहीं है, अपितु मार्ग में चलता हुआ पथिक ही लुटता है।