________________
सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
सदा ॥
संक्षेप में व्यवहार का यह कथन दर्शाया गया । अब सुनो परिणाम विषयक कथन जो परमार्थ का ॥ शिल्पी करे जो चेष्टा उससे अनन्य रहे सदा । जीव भी जो करे वह उससे अनन्य रहे चेष्टा में मगन शिल्पी नित्य ज्यों दुःख भोगता । यह चेष्टा रत जीव भी त्यों नित्य ही दुःख भोगता ।। जिसप्रकार शिल्पी (कलाकार - सुनार) कुण्डल आदि कार्य (कर्म) करता है; किन्तु कुण्डलादि को बनाते समय वह उनसे तन्मय नहीं होता, उनरूप नहीं होता; उसीप्रकार जीव भी पुण्य-पापादि पुद्गल कर्मों को करता है; परन्तु उनसे तन्मय नहीं होता, उनरूप नहीं होता ।
जिसप्रकार शिल्पी हथौड़ा आदि करणों (साधनों) से कर्म करता है; परन्तु वह उनसे तन्मय नहीं होता; उसीप्रकार जीव मन-वचन-कायरूप करणों से कर्म करता है; परन्तु उनसे तन्मय नहीं होता ।
जिसप्रकार शिल्पी करणों को ग्रहण करता है, परन्तु उनसे तन्मय नहीं होता; उसीप्रकार जीव करणों को ग्रहण करता है, पर उनसे तन्मय (करणमय) नहीं होता ।
जिसप्रकार शिल्पी कुण्डल आदि कर्म के फल को भोगता है; परन्तु वह उससे तन्मय नहीं होता; उसीप्रकार जीव भी पुण्य-पापादि पुद्गलकर्म के फल को भोगता है; परन्तु तन्मय (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिम) नहीं होता ।
१०३
इसप्रकार व्यवहार का मत संक्षेप में दर्शाया। अब परिणाम विषयक निश्चय का मत (मान्यता) सुनो ।
जिसप्रकार शिल्पी चेष्टारूप कर्म करता है और वह उससे अनन्य है; उसीप्रकार जीव भी अपने परिणामरूप कर्म को करता है और वह जीव उस अपने परिणामरूप कर्म से अनन्य है ।
जिसप्रकार चेष्टारूप कर्म करता हुआ शिल्पी नित्य दु:खी होता है;