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संकर जातियां कोई के साथ लग्न करे तो प्रतिलग्न से होने वाली प्रजा की जाति फिर नयी बने । हस तरह हनुमानजी की पूँछ जैसे इन जातियों का विस्तार बढता ही गया । कोई भी दो भिन्न ज्ञातियों में लग्न संबंध हुआ कि, तीसरी नूतन ज्ञाति पैदा हुई । इस तीसरी जाति का अनुलोम प्रतिलोम दर्जा निश्चित करने का काम शास्त्रकार ब्राह्मणों का था । वे शास्त्रों के मूल तत्वानुसार नये निबंध निश्चित करते और राजा उनको अमल में लाते । ऐसी उस समय की प्रणाली थी। देश के अन्योन्य विभागों के निवासी ब्राह्मण क्षत्रिय आदि चतुर्वर्ग के लोगों का मूल बन्धन एकसा था; परंतु उनमें जैसा जैसा अंतर पडता गया भिन्न भिन्न विभागवासी लोगों के लिये प्रदेशीय आवश्कतानुसार तथा तद्देशीय शास्त्रकारों के अभिप्रायानुसार भिन्न भिन्न नियम बनाये गये । व्यवहारिक नियमन करने वाले इन शास्त्रों को "स्मति" कहने लगे । स्मृतियों के पहिले भी व्यवहार नियामक ग्रंथ थे; और वे "ग्राह्यसूत्र" नाम से जाने जाते थे । स्मृतियां लिखी जाने बाद भी ब्राह्मण इन ग्राह्यसूत्रों ही को प्रमाणभूत मानते आरहे थे । भिन्न भिन्न प्रदेशवासी ब्राह्मणों में वेद
ओर उनकी शाखा (प्रकरण ) भिन्नता से प्रचलित थे। इसी प्रकार भिन्न शाखानुसार व्यहार नियामक प्राह्मसूत्र भी अलग अलग थे। अर्थात् शाखा भिन्नता के कारण व्यवहार में भेदा भेद होने लगा । आज "स्मृति"