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१२८ के मंदिर का रंग-मंडप दाढा धर बनाया। दूसरे ने संप्तविंशत तीर्थ किये सं १३१० में । इन के पुत्रोंने १३३८ संवत में वासुपुज्य की देवकुलिका बनवाई. और सं. १३४५ में श्री संमेत शिखरजी की मुख्य प्रातष्ठा कराई। एवं इस वंश के चार पढिी तक सभी वंशजोंने ऐसे धर्म कार्य किये कि जिनका स्मरण उक्त स्मारक उपस्थित हैं वहांतक संसार को रहेगा।
इनका-शिलालेखं । [ पोसीना-भरुच-भेरव मूर्ति के नीचे ], १ प्राग्वाट वंशे श्रे० उहड येन श्री जिन. २। भद्रसूरि सदुपदेशेन पादपरागामे उं- ३ दिर वसहि का चैत्यं श्रीमहावीर प्रतिमा ४ । युतं कारितं । तत्पुत्रौ ब्रह्मदेव शरण दे- ५ कै ब्रह्म देवेन सं. १३०५ अत्रैव श्री ने ६ । मि मंदिर रंग मंडप दाढा धरः कारितः ७ । श्री रत्नप्रभ सूरि सदुपदेशेन तदनुज श्रे० ८ । शरणदेव भार्या सुहव देवि तत्पुत्रः श्रे०
. ९ वीरचंद्र पासड । आंबड रावण । यै श्री पर.. १० मानंद सूरिणा मुपदेशेन सप्तविंशत तीर्थ का
११ रितं ॥ सं. १३१० वर्षे । वीरचंद्र भार्या रुखमिणी१२ पुत्र पूना भार्या साहग पुत्र लूणां झांझण आं१३ बड पुत्र बीजा खेता । रावण भार्या हीरु पुत्र वो१४ डा भार्या कामल पुत्र कडुआ॥ द्वि० जयता भार्या मूं१५ छा पुत्र देवपाल । कुमरपाल । तृ० अरिसंह भा०.