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समय मन्त्रिवाग्भटादिषु लक्षचतुष्कादि महूआ वासि सौराष्ट्रिक प्राग्वट हंसराज धारुपुत्रो जगडो मलिनाङ्गवस्त्रो सपाद कोटीं चक्रे "
५४ इसपाठ में देव द्रव्य की वृद्धि करने के लिये दरवर्ष मालाद् घन करनेका कहा है, अर्थात्-मालाओंके चढावे करके देव द्रव्यकी वृद्धि करनेका बतलाया है, उसमें इन्द्रमाला अथवा अन्यमाला दरवर्ष शक्तिके अनुसार श्रावक को अवश्य ही ग्रहण करनी चाहिये, कुमारपाल महाराजा के संघ में इन्द्रमाला के चढ़ावे के समय पहिली मालाके चढ़ावे के सवा करोड रुपये हुए थे, इसी तरह श्रावकों को इंन्द्रमालादि के चढ़ावे लेकर देव द्रव्य की वृद्धि करनी चाहिये.
५५ अब विवेक बुद्धि पूर्वक दीर्घ दृष्टि से विचार करना चाहिये कि कुमारपाल महाराजा के पहिले प्राचीन पूर्वाचार्यों के समय से ही चढावे करके देवद्रव्यकी वृद्धि करने का रिवाज चला आता है, जिसको श्राद्धविधि ग्रंथ कारने विधि वादमें गिना है, इसलिये उसको चरितानुवाद कहकर निषेध करना योग्य नहीं है ।
५६ इसी तरह से उपदेश सप्तति, तथा चतुर्विंशति प्रबंध वगैरह बहुत शास्त्रोंमें इस चढावे के रिवाजको विधिवादमें गिना है, इस लिये चरितानुवाद के नामसे निषेध कभी नहीं हो सक्ता ।
५७ जैसे ब्रह्मचर्य का उपदेश करते हुए विजय सेठ, विजया सेठानी स्थूलभद्र मुनि महाराज वगैरह के दृष्टांत से ब्रह्मचर्य को विशेष पुष्ट करे, उसको चरितानुवाद कहकर निषेध करनेवाले को अज्ञानी समझना चाहिये. तैसे ही देवद्रव्य की वृद्धि करनेका बतलाते हुए कुमारपाल महाराजा के संघ में इन्द्रमाला के दृष्टांत से देवद्रव्यकी वृद्धिकी बातको पुष्ट किया, उसको चरितानुवाद कहकर निषेध करनेवालेकोभी अज्ञानी समझना चाहिये. इसी तरह से भस्त चक्रवर्तीका संघ, शत्रुंजय तीर्थ के १६ उद्धार और ६३ शलाका पुरुषों के पूर्वभव शुभ कर्तव्य वगैरह
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