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________________ ४२ को आगरा शहर की तरफ विहार करगये, उसका विचार पाठक आपही कर लेंगे. सं. १९७९ ज्येष्ठ वदी ११ सोमवार मुनि - मणिसागर इन्दोर. विजय धर्मसूरिजी की कपट बाजी १ पहिले मेरे साथ देवद्रव्य संबंधी शास्त्रार्थ करनेका मंजूर किया था तब तो मैं सब बातों में योग्य था अब शास्त्रार्थ करने के समय अयोग्य कहते हैं. यह कैसी कपटबाजी है. २ जब इन्दौर से फागण सुदी १० के रोज पोष्टकार्ड लिखवा कर मेरे को बदनावर से शास्त्रार्थ के लिये इन्दोर जल्दी आनेका लिखवाया और उसमें शास्त्रार्थ के लिये नियम, प्रतिज्ञापत्र, मध्यस्थ वगैरह बातें दोनोंने मिलकर करलेने का लिखा था तब तो इन्दौर के संघकी सम्मति लेना भूलगये थे. अब मैं उनके लिखेप्रमाणे आया और शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार हुआ. जब अपनी प्रतिज्ञा मुजब शास्त्रार्थ की शक्ति नहीं हुई तब संघकी सम्मति लेनेकी आड लेते हैं यह कैसी कपटबाजी है. १३ वैशाख सुदी ९ के रोज मेरेको अपने स्थानपर शास्त्रार्थ करनेके लिये बुलाया था. जब मैंने व्यवस्था संभालने के संबंध में स्थान के ( मकान के ) मालिक की सही मांगी तब भिजवाई नहीं और आपने भी सत्य निर्णय होवे सो ग्रहण करने वगेरह नियम मंजूर किये नहीं, चार ( ४ ) साक्षी बनाये नहीं, शास्त्रार्थ करनेवाले मुनि का नामभी बतलाया नहीं, सब बातों में चुपकी लगादी. फिर अब बोलते हैं हम तो शास्त्रार्थ के लिये तैयार थे. यह कैसी कपट बाजी है. ४ वैशाख सुदी १५ के रोज फिर भी मेरेको अपने स्थानपर शास्त्रार्थ करने के लिये दूसरी वक्त बुलाया परंतु क्रोध में भभक गये थे, अपनी मर्यादा बाहर होगये थे. तब मैंने सत्यग्रहण करने की व हारनेवाले को तीर्थ रक्षाको शिक्षा करने वगेरह नियमों की सही के लिये पत्र भेजा सो
SR No.032002
Book TitleDev Dravya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherNaya Jain Mandir Indore
Publication Year1920
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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