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गुरु-शिष्य
तो धर्म और अधर्म दोनों छुड़वा देते हैं और मुक्ति की ओर ले जाते हैं। आपको समझ में आया न? वे व्यवहार के गुरु संसार में हमें सांसारिक धर्म सिखलाते हैं, क्या अच्छा करें और कौन-सा बुरा छोड़ दें, वे सारी शुभाशुभ की बातें हमें समझाते हैं। संसार तो रहेगा ही, इसलिए वे गुरु तो रहने देने हैं और हमें मोक्ष में जाना है, तो उसके लिए ज्ञानीपुरुष, अलग से चाहिए ! ज्ञानीपुरुष, वे भगवानपक्षी कहलाते हैं ।
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नहीं भूलते उपकार गुरु का
प्रश्नकर्ता : ‘दादा' के मिलने से पहले किसीको गुरु माना हो तो? तो उसे क्या करना चाहिए?
दादाश्री : तो उनके वहाँ जाओ न ! नहीं जाना हो तो जाना ही है ऐसा अनिवार्य नहीं है। आपको जाना हो तो जाओ और नहीं जाना हो तो नहीं जाओ । उन्हें दुःख नहीं हो, उसके लिए जाना चाहिए। हमें विनय करना चाहिए । यहाँ पर ‘ज्ञान' लेते समय फिर मुझे कोई पूछे कि, 'अब मैं गुरु को छोड़ दूँ?' तब मैं कहता हूँ कि, ‘मत छोड़ना । अरे, उन गुरु के प्रताप से तो यहाँ तक आया है।' गुरु के कारण मनुष्य कुछ मर्यादा में रह सकता है, गुरु नहीं हों न, तो मर्यादा भी नहीं रहती और गुरु से कह सकते हैं कि, 'मुझे ज्ञानीपुरुष मिल गए हैं। उनके दर्शन करने जा रहा हूँ ।' कुछ लोग तो अपने गुरु को भी मेरे पास ले आते हैं। क्योंकि गुरु को भी मोक्ष चाहिए होता है न!
प्रश्नकर्ता : एक बार गुरु बनाए हों और फिर बाद में छोड़ दें तो क्या
होगा?
दादाश्री : परंतु गुरु को छोड़ने की ज़रूरत ही नहीं है । गुरु को किसलिए छोड़ना है? मैं किसलिए छोड़ने को कहूँ? वापिस उस झंझट में मैं कहाँ पहूँ? उसके उल्टे परिणाम खड़े होंगे, उसका गुनहगार मैं ठहरूँगा ! अब उन गुरु को मनाकर हमें उनके साथ काम लेना चाहिए । ऐसा हो सकता है हमसे। हमें इन भाई से काम करवाना नहीं आता हो, मेल नहीं पड़ता हो, तो हम उससे काम कम करवाएँ। पर वैसे ही उनके पास आएँ - जाएँ, उसमें हर्ज क्या है हमें ?