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गुरु-शिष्य
प्रश्नकर्ता : मानो कि किसी ने दूसरे गुरु बनाए हों, फिर आप मिले, इसलिए वह चाय और आप जलेबी जैसा हो जाता है, उसका क्या?
__दादाश्री : वह चाय-जलेबी जैसा हो जाता है, वह डिफरन्ट मेटर है। वह तो स्वाभाविक रूप से हो जाता है। हम यदि ऐसा कहें कि, 'उन्हें छोड़ दो' तब तो उल्टे चलेंगे। इसलिए छोड़ नहीं देना है। फीका लगे तो फीका, पर छोड़ नहीं देना है। उन्हें दुःख नहीं हो उसके लिए कभी आप जाकर दर्शन कर आओ। उन्हें ऐसा नहीं लगे कि 'यह आता था न, फिर बदल गया।' उन्हें यदि पता चले कि आप दूसरी जगह जाते हो, तब कहना, 'आपके आराधन से ही मुझे यह फायदा मिला है न! आपने ही इस रास्ते पर चलना सिखाया है न मुझे!' तब उन्हें आनंद होगा। आत्मसन्मुख का मार्ग कैसा है? किसी ने चाय का एक प्याला पिलाया हो न, तो उसे भूले नहीं। आपको कैसा लगता
है?
प्रश्नकर्ता : समझ में नहीं आया इसलिए पूछ लिया।
दादाश्री : ठीक है। पूछकर पक्का किया हो तो अच्छा। हर एक चीज़ पूछकर पक्की कर लो।
यानी हम उनका तिरस्कार नहीं करें। जिन्हें गुरु बनाया हो, उनका तिरस्कार करना भयंकर गुनाह कहलाता है। उनके पास से कुछ तो लिया था न, हमने? कुछ तो हेल्प हुई होगी न? उन्होंने आपको एकाध सीढ़ी तो चढ़ाई होगी न? इसलिए आपको उनका उपकार मानना चाहिए। यानी अभी तक जो प्राप्त हुआ, उसका उपकार तो है ही न! कुछ हमें लाभ दिया, वह भूल नहीं सकते न! इसलिए गुरु को छोड़ नहीं देना होता, उनके दर्शन करने चाहिए। उन्हें छोड़ दें तब तो उन्हें दुःख होगा। वह तो आपका गुनाह कहलाएगा। आपका उपकार मेरे ऊपर हो, और मैं आपको छोड़ दूँ तो गुनाह कहलाएगा। इसलिए छोड़ते नहीं, हमेशा उपकार रखना ही चाहिए। एक इतना भी उपकार किया हो और भूल जाए, वह व्यक्ति खरा नहीं कहलाता।
अर्थात् गुरु भले ही रहें। गुरु को रहने देना है। गुरु को हटाना नहीं है। कोई भी गुरु हों तो उन्हें हटाने नहीं जाना है। इस दुनिया में हटाने जैसा कुछ