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गुरु-शिष्य
खरी-खोटी सुनाते हैं कि , 'तुझमें अक्कल नहीं है, तुझे भान नहीं है।' तब शिष्य क्या कहेगा? 'क्या पुस्तक मैं खा गया होऊँगा? यहीं कहीं पड़ी होगी। आपकी झोली में नहीं होगी तो खाट के नीचे होगी।' पर शिष्य 'खा गया होऊँगा?' ऐसा बोलता है! इससे तो घर में झंझट करना अच्छा। इसके बदले तो पत्नी का शिष्य बनना, तो वह डाँटेगी पर फिर वापिस पकौड़े खिलाएगी न! कुछ स्वतंत्रता चाहिए न? ऐसे गुरु मिलें, इतनी-इतनी चाकरी करें फिर भी पागल जैसा बोलें तो क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : पत्नी स्वार्थ के लिए डाँटती है और वह गुरु नि:स्वार्थ रूप से डाँटते हैं, उन दोनों में फर्क नहीं है?
दादाश्री : गुरु का नि:स्वार्थ नहीं होता। जगत् में नि:स्वार्थ मनुष्य कोई होता नहीं है। वह नि:स्वार्थी दिखते ज़रूर हैं, पर जहाँ-तहाँ से स्वार्थ करके
और सारी उसीकी तैयारी ही कर रहे होते हैं। वे सभी स्वार्थी हैं, पोलवाला है सारा। वह तो जिसे ज़रा समझ में आ जाएगा, वह पहचान जाएगा।
बाक़ी, शिष्य और गुरु वे दोनों झगड़ते ही रहते हैं, दोनों की जमी हुई ही होती है पूरा दिन। हम गुरु से ज़रा मिलने जाएँ और कहें कि, 'क्यों, यह क्या है?' तब वे कहेंगे, 'वह अच्छा नहीं है। शिष्य इतना अधिक खराब मिला है!' हम वह बात शिष्य को नहीं बताएँ, और फिर शिष्य से हम पूछे कि, 'क्यों भाई यह क्या था?' तब वह कहेगा, 'ये गुरु बेकार मिले हैं, इतने खराब मिले हैं!' इसमें किसकी बात सच्ची? इसमें उनका दोष नहीं है। क्योंकि काल ऐसा आया है। उस काल के कारण यह सब खड़ा हो गया है। पर ऐसा काल आए, तब ज्ञानीपुरुष अवतरित होते हैं।
शिष्य को चाहे जितना आता हो, पर ये गुरु सब ऐसे ही मिलेंगे न! कलियुग के गुरु कैसे होते हैं? शिष्य है, वह कहे कि, 'मैं तो अज्ञानी हूँ, मैं कुछ नहीं जानता' फिर भी गुरु इस बेचारे को मारते रहते हैं, आगे नहीं बढ़ने देते। वे गुरु मरते दम तक भूलें निकालते हैं और शिष्य को परेशान कर देते हैं, तेल निकाल देते हैं। फिर भी शिष्य को सँभालकर रखनेवाले कुछ ही होते हैं। परंतु अंत में बारुदखाना ही मानना, अंत में एक दिन फोड़े बगैर रहेगा ही नहीं।