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गुरु-शिष्य
होंगे उनके ही हस्ताक्षर चलेंगे। पूरे हस्ताक्षर नहीं हों और सिर्फ इनिश्यल्स (आद्याक्षर) होंगे तब भी चलेगा। और इन्दिरा गांधी के पूरे हस्ताक्षर होंगे तो भी नहीं चलेगा।
मूर्ति, वह भी परोक्ष भक्ति प्रश्नकर्ता : एक संत कहते हैं कि ये जो जड़ वस्तुएँ हैं, मूर्ति-फोटो, उनका अवलंबन नहीं लेना चाहिए। आपकी नज़र के सामने जीवित दिखें, उनका अवलंबन लो।
दादाश्री : वह तो ठीक कहते हैं कि यदि जीवित गुरु अच्छे मिलें तो हमें संतोष होगा। लेकिन गुरु का ठिकाना नहीं पड़े, तब तक मूर्ति के दर्शन करें। मूर्ति तो सीढ़ी है, उसे छोड़ना नहीं। जब तक अमूर्त प्राप्त नहीं हो जाए, तब तक मूर्ति छोड़ना नहीं। मूर्ति हमेशा मूर्त ही देगी। मूर्ति अमूर्त नहीं दे सकती। खुद का जो गुणधर्म हो वही करेगी! क्योंकि मूर्ति, वह परोक्ष भक्ति है। ये गुरु भी परोक्ष भक्ति है, लेकिन गुरु में जल्दी प्रत्यक्ष भक्ति होने का साधन है। जीवित मूर्ति हैं, वे। इसलिए प्रत्यक्ष हों वहाँ पर जाना। भगवान की मूर्ति के भी दर्शन करना, दर्शन करने में हर्ज नहीं है। उसमें अपनी भावना है और पुण्य बँधता है, इसलिए मूर्ति के दर्शन करें, तो चलेगा अपने लिए। लेकिन मूर्ति बोलती नहीं हमारे साथ कुछ भी। कहनेवाला तो चाहिए न कोई? कोई कहनेवाला नहीं चाहिए? वैसे कोई खोज नहीं निकाले?
प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : तो कब खोजेंगे अब?
स्वच्छंद रुके, प्रत्यक्ष के अधीन ही इसलिए कहा है न, कि सजीवन मूर्ति के बिना अकेला मत पड़ा रहना। कोई सजीवन मूर्ति ढूँढ निकालना, और फिर वहाँ फिर उनके पास बैठना। तेरे से कुछ दो आने भी वे अच्छे हों, तू बारह आना हो तो चौदह आनेवाली मूर्ति के पास बैठना। जो हो चुके हैं, वे आज दोष दिखाने नहीं आएँगे। सजीवन हों, वे ही दोष दिखाएँगे।