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गुरु-शिष्य
वे गुरु खुद ही नहीं चढ़े हैं न ! चढ़ना कोई आसान बात है इस कलियुग में, दूषमकाल में? यह टीला तो बिल्कुल खड़ा टीला है ! परंतु फिसलने नहीं देते। लोगों को दूसरा मिलता नहीं है, इसीलिए चाहे जिस दुकान में बैठ ही जाना पड़ता है न! इस तरह अनंत जन्मों से भटकते ही रहते हैं न!
प्रश्नकर्ता : एक ओर ऐसा कहा जाता है कि,
‘गुरु गोविंद दोनों खड़े, किसको लागूँ पाय, बलिहारी गुरु आपकी, जिसने गोविंद दियो बताय ।'
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दादाश्री : हाँ, पर वैसे गुरुदेव किन्हें कहा जाता है? गोविंद बताएँ, उन्हें गुरुदेव कहा जाता है। वैसा ही इसमें कहते हैं । अभी तो ये गुरु उनका गुरुपन स्थापित करने के लिए बात करते हैं । परंतु हमें उन्हें कहना चाहिए न कि 'साहब, मैं आपको गुरुदेव कब कहूँगा? कि आप मुझे गोविंद बता दें तो । यह लिखा है उस अनुसार यदि कर दें तो, गोविंद बता दीजिए, तो आपमें गुरुपन स्थापित करूँ। आप ही अभी तक गोविंद ढूँढ रहे हैं और मैं भी गोविंद ढूँढ रहा होऊँ तो हम दोनों का मेल कब पड़ेगा?'
बाक़ी, आज तो सभी गुरु यही सामने रखते हैं ! गुरु ने गोविंद बताए नहीं हों न, तो भी ऐसा गवाते हैं। ताकि गुरुओं को 'प्रसाद' तो मिले न! इन शब्दों का दूसरे दुकानदार को लाभ होता है न। ( !)
प्रश्नकर्ता : लेकिन इसमें गुरु का पलड़ा अधिक वज़नदार बना दिया।
दादाश्री : है वज़नदार ही, परंतु वैसे गुरु अभी तक मिले नहीं। ये तो प्रोबेशनर (आजमायशी) गुरु चल निकले हैं इसमें ! यानी प्रोबेशनर मान बैठे हैं कि ‘अब हम गुरु हैं, और भगवान दिखा दिए, फिर मुझे पूजना चाहिए तुझे ।' परंतु प्रोबेशनर किस काम के ? जिसमें से 'हुँकार' ( मैं कुछ हूँ) चला गया हो न, उसके बाद वही भगवान! यदि कभी अधिक दर्शन करने योग्य पद हो तो वह सिर्फ यही एक कि जिनका 'हुँकार' समाप्त हुआ हो, पोतापणुं ( मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन ) चला गया हो। जहाँ पोतापणुं गया, वहाँ पर सर्वस्व चला गया