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गुरु-शिष्य
को कंठियाँ ही पहनाते रहते हैं । फिर उसे असर हो जाता है कि, 'मैं इस संप्रदाय का हूँ, मैं इस संप्रदाय का हूँ !' यानी सायकोलोजिकल इफेक्ट हो जाता है। परंतु वह अच्छा है। वह सब गलत नहीं है । वह हमें नुकसानदायक नहीं है। आपको ‘नुगरा' की चिंता नहीं करनी है, ' नुगरा' कहें तो आपकी आबरू जाएगी, ऐसा ?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : नुगरा की आपको चिंता क्यों हुई?
प्रश्नकर्ता : उस कंठी की बात आई न, इसलिए ।
दादाश्री : हाँ, परंतु कंठी बाँधनेवाले को ऐसा कहना चाहिए कि, ‘यह बाँधी हुई कंठी मैं कब तक रखूँगा? मुझे फायदा होगा तब तक रखूँगा, नहीं तो फिर तोड़ दूँगा।' ऐसी उनके सामने शर्त रखनी चाहिए। वे पूछें कि, 'क्या फायदा चाहिए आपको?' तब हम कहें, 'मेरे घर में कलह नहीं होनी चाहिए, नहीं तो मैं कंठी तोड़ दूँगा।' इस तरह पहले से ही ऐसा कह देना चाहिए। ऐसा लोग कहते नहीं होंगे न? यह तो कलह भी चलती रहती है और कंठी भी चलती रहती है। कंठी बाँधकर क्लेश होता रहता हो तो वह कंठी हमें तोड़ देनी चाहिए। गुरु से कहें कि, 'लीजिए, आपकी कंठी यह वापिस । आपकी कंठी में कोई गुण नहीं है । आपकी कंठी आपने मंत्र पढ़कर नहीं दी है। ऐसा मंत्र पढ़कर दीजिए कि मेरे घर में झगड़े नहीं हों । '
।
प्रश्नकर्ता : कंठी नहीं बाँधी हो तब तक वैसा उपदेश लें तो भी ज्ञान नहीं उतरेगा, ऐसा वे कहते हैं।
दादाश्री : ले! नहीं बाँधो तो आपको ज्ञान नहीं होगा ( !) कितना अधिक धमकाते हैं! यह तो धमका - धमकाकर इन सबको सीधा कर देते हैं !
किसकी बात और किसने पकड़ी ?
अच्छा है, उस रास्ते भी लोगों को सीधा करते हैं न ! फिर भी ये लोग फिसलने नहीं देते उतना अच्छा है। बाक़ी, चढ़ाने की तो बात ही कहाँ रही?