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सहारा? पत्नी के बिना अकेले कैसे निभा पाऊँगा? जीवन में किसकी हूंफ (अवलंबन, सलामती) मिलेगी? घरवाले नहीं मानेंगे तो?!' वगैरह वगैरह निश्चय का छेदन करनेवाले अनेकों विचार स्वभाविक रूप से आएँगे ही। तब उन्हें तुरंत उखाड़कर निश्चय को वापस और अधिक मज़बूत कर लेना है। विचारों को खत्म करनेवाला यथार्थ 'दर्शन' भीतर खुद अपने आप को दिखाना पड़ेगा, कि 'विषय के बिना कितने ही जी चुके हैं। इतना ही नहीं लेकिन सिद्ध भी बने हैं। खुद आत्मा के रूप में अनंत सुख का धाम है। विषय की उसे खुद को ज़रूरत ही नहीं है। जिनकी पत्नी का देहांत हो जाए, क्या वे अकेले नहीं जीते? हूँफ किसकी खोजनी है? खुद का निरालंब स्वरूप प्राप्त करना है और दूसरी ओर हूँफ खोजनी है? ये दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं?' और जहाँ खुद का निश्चय मेरु पर्वत की तरह अडिग रहता है, वहाँ कुदरत भी उसका साथ देती है और विषय में फिसलनेवाले संयोग मिलने ही नहीं देती। अर्थात पूरा आधार खुद के निश्चय पर ही है।
ब्रह्मचर्य पालन करना है, ऐसा अभिप्राय दृढ़ होने से ही कहीं पूरा नहीं हो जाता। ब्रह्मचर्य की जागति उत्पन्न होना अति-अति महत्वपूर्ण चीज़ है। प्रतिक्षण ब्रह्मचर्य की जागृति रहे, तब ब्रह्मचर्य वर्तन में रह सकता है। मतलब जब दिन-रात ब्रह्मचर्य से संबंधित विचारणा ही चलती रहे, निश्चय दृढ़ होता रहे, संसार में वैराग लानेवाला स्वरूप दिन-रात दिखता रहे, ब्रह्मचर्य के परिणाम सतत दिखते रहें, किसी भी संयोग में ब्रह्मचर्य नहीं भूले, जब ऐसी उत्कृष्ट दशा में आ जाए, तब अब्रह्मचर्य की ग्रंथियाँ टूटने लगती हैं। ब्रह्मचर्य की जागृति इतनी अधिक बर्ते कि विषय का एक भी विचार, एक क्षण के लिए भी विषय की तरफ चित्त का आकर्षण, उसकी जागृति के बाहर नहीं जाए और वैसा होने पर तत्क्षण प्रतिक्रमण हो जाए और उसका कोई भी स्पंदन नहीं रहे, इतना ही नहीं लेकिन सामायिक में उस दोष का गहराई से विश्लेषण करके जड़मूल से उखाड़ने की प्रक्रिया चलती रहे, तब जाकर विषयबीज निर्मूलन के यथार्थ मार्ग पर प्रयाण होगा।
ब्रह्मचर्य का निश्चय दृढ़ हो जाए और ध्येय ही बन जाए, फिर उस ध्येय के प्रति निरंतर 'सिन्सियर' रहने से, ध्येय तक पहुँचानेवाले संयोग