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आसानी से सामने आते जाते हैं। ध्येय निश्चित होने के बाद 'ज्ञानीपुरुष' के वचन उसे आगे ले जाते हैं, या फिर फिसलनेवाली परिस्थिति में वह वचन ध्येय को पकड़े रखने में सहायक बन जाते हैं। ऐसे करते-करते अंत में खुद ही ध्येय स्वरूप बन जाता है। उसके बाद फिर भले ही किसी भी तरह के डिगानेवाले, अंदर के या बाहर के ज़बरदस्त विचित्र संयोग आ जाएँ, फिर भी जिसका निश्चय नहीं डिगता, जो निश्चय के प्रति ही 'सिन्सियर' रहता है, उसे दिक्कत नहीं आती।
__ शुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए 'ज्ञानीपुरुष' का सानिध्य एवं ब्रह्मचारियों का संग अति-अति आवश्यक है। उसके बगैर भले ही कितनी भी स्ट्रोंग भावना होगी, फिर भी सिद्धि तक पहुँचने में अनेकानेक अंतराय आ सकते हैं! 'ज्ञानीपुरुष' के सतत् मार्गदर्शन तले साधक मार्ग पर आनेवाली हर एक मुश्किल को पार कर सकता है! और गृहस्थियों के संग के असर से दूर रहकर, ब्रह्मचारियों के ही वातावरण में ठेठ तक खुद के ध्येय को पकड़े रखकर ध्येय को प्राप्त कर लेता है। 'ज्ञानीपुरुष' के उपदेश को ग्रहण करके ब्रह्मचर्य के दृढ़ निश्चयवाला साधक, ब्रह्मचारियों के संग के बल से भी पार उतर सकता है, ऐसा है!
ब्रह्मचर्य की भावना जागृत होने और उसके प्रति दृढ़ निश्चय हो जाए, उसके लिए सतत् मार्गदर्शन मिलता रहे, वह तो अत्यंत आवश्यक है, लेकिन हर तरह से ब्रह्मचर्य की 'सेफ साइड' रखने के लिए खुद की
आंतरिक जागृति भी उतनी ही ज़रूरी है। 'अनसेफ' जगह से 'सेफली' निकल जाने की जागृति और 'प्रेक्टिकल' में उसकी समय सूचकता की बाड़ साधक के पास होना ज़रूरी है। वर्ना जो दुर्लभ है, ब्रह्मचर्य के ऐसे उगे हुए पौधे को बकरा चबा लेगा!! एक तरफ मौत को स्वीकार करना पड़े तो उसे सहर्ष स्वीकार कर ले, लेकिन खुद की ब्रह्मचर्य की 'सेफ साइड' न चूके, स्थूल संयोगों के क्रिटिकल दबाव के बीच भी, वह विषय के गड्ढे में गिरे ही नहीं, ब्रह्मचर्य भंग होने ही न दे, इस हद तक की 'स्ट्रोंगनेस' ज़रूरी है। लेकिन उसके लिए जागृति कैसे लाई जाए? वह तो ब्रह्मचर्य पालन करने की खुद की साफ नीयत, उसकी संपूर्ण 'सिन्सियारिटि' से ही आ सकती है!