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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
दादाश्री : मैंने आप सब को जो आत्मा दिया है, उसमें ज़रा सी भी सुखबुद्धि नहीं है। यह सुख उसने कभी चखा ही नहीं है। वह जो सुखबुद्धि है, वह तो अहंकार को है।
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सुखबुद्धि रहे, उसमें कोई हर्ज नहीं है। सुखबुद्धि आत्मा की चीज़ नहीं है, वह पुद्गल की चीज़ है। तुम्हें कोई भी चीज़ दी जाए, तब उसमें आपको सुखबुद्धि उत्पन्न होती है। फिर से वही चीज़ और अधिक दी जाए, तब उसमें दु:खबुद्धि भी उत्पन्न हो सकती है। ऐसा आपको पता चलता है या नहीं ?
प्रश्नकर्ता: हाँ, ऊब जाते हैं
फिर ।
दादाश्री : अत: वह पुद्गल है। पूरण- गलनवाली चीज़ है I यानी वह चीज़ हमेशा के लिए नहीं है, टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट है। सुखबुद्धि अर्थात् यह आम अच्छा हो और उसे फिर से माँगें, तो उससे ऐसा नहीं माना जा सकता कि उसमें सुखबुद्धि है। वह तो देह का आकर्षण है ।
प्रश्नकर्ता: देह का और जीभ का आकर्षण बहुत रहा करता है ।
दादाश्री : वह जो आकर्षण रहा करता है, उसमें सिर्फ जागृति रखनी है। हमने आपको जो वाक्य दिया है न कि 'मन-वचनकाया की तमाम संगी क्रियाओं से मैं बिल्कुल असंग ही हूँ।' वह जागृति रहनी चाहिए, और वास्तव में एक्ज़ेक्टली ऐसा ही है। वह सब पूरण-गलन है। आप अगर यह जागृति रखोगे तो आपको कर्म बंधन नहीं होगा।
है ?
प्रश्नकर्ता : अगर वही नहीं रह सके तो वह हमारे चारित्र का दोष है ऐसा मानें ?
दादाश्री : वैसा क्रमिक मार्ग में होता है ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उस चारित्रमोह के कारण ढीलापन रहता