________________ 430 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) काम करता है। और यदि वह जानता ही नहीं हो कि डखोडखल नहीं करनी है तब डखोडखल हो जाती है बार-बार और फिर पछतावा होता है। यह कैसा है? 'कल्याण हो' हमने ऐसा भाव बोला हो तो उसका असर होता है। और अगर ऐसा कुछ न बोले हों तो फिर उसका असर नहीं होता तब उल्टे परिणाम आते हैं। ठीक से, अच्छे परिणाम नहीं आते। प्रश्नकर्ता : खुद पुरुष हो जाने के बाद अगर अपनी प्रकृति खराब हो तो उसे सुधारने का पुरुषार्थ करना चाहिए या सिर्फ देखते रहने का ही पुरुषार्थ करना है? दादाश्री : सुधारने का कोई भी पुरुषार्थ नहीं करना है। वह तो अब सुधरेगी नहीं। उसका निकाल ही करना है। छलनी से जितना छन गया उतना ठीक है और अगर नहीं छना तो वापस छानना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : तो फिर अंदर 'डखोडखल नहीं करूँ' ऐसा बोलने की ज़रूरत ही कहाँ रही? दादाश्री : वह तो, 'डखोडखल नहीं करूँ' ऐसा जो बोलते हैं न, तो उसी अनुसार रास्ते पर आ जाता है। फिर वह दखल नहीं करता है। और अगर नहीं बोलें तो फिर वैसी ही दखल करेगा। प्रश्नकर्ता : हम पुद्गल से होनेवाली क्रियाएँ देख रहे हों तो उसमें डखोडखल कहाँ पर हो जाती है? दादाश्री : उसमें डखोडखल नहीं होती। जब हम चरणविधि पढ़ते हैं उस समय 'डखोडखल नहीं करूँ ऐसी शक्ति दीजिए।' सुबह आप ऐसा बोलते हो न तो पूरे दिन वह ज्ञान रहता है। डखोडखल नहीं करते। जैसे हमने किसी से कहा हो कि 'वहाँ पर जा रहे हो लेकिन सिनेमा में मत जाना, हं!' तो फिर वह ज्ञान उसे वहाँ पर हाज़िर रहता है, उसकी वजह से वापस आ जाता है। नहीं तो अगर हमने नहीं कहा हो तो सिनेमा में जा आता है। इसलिए इस पर से, क्या निमित्त बनेगा, वह हमें पता चल जाता है। डिस्चार्ज में क्या बोलता है, उससे हमें पता चल जाता है कि क्या निमित्त बनेगा। बहुत सूक्ष्म बात कह रहा हूँ यह आपको !