________________ 428 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) हो ही नहीं पाता। यह चिट्ठी भी नहीं लिखी जा सकती न! लेकिन वह डिस्चार्ज होता हुआ अहंकार है। आपको परेशान नहीं करता। अहंकार के बगैर तो कार्य ही नहीं हो सकता। हमें बोलना पड़ता है कि 'मैं संडास जा आया, मुझे संडास जाना है।' अहंकार हस्ताक्षर करे तभी कार्य हो पाता है, नहीं तो कार्य नहीं हो पाता। प्रश्नकर्ता : आपके लिए सहज हो चुका है सबकुछ? दादाश्री : फिर भी किसी जगह पर छूते ही (डिस्चार्ज) अहंकार खत्म हो जाता है तब सहज हो जाता है। सहज है, फिर भी किसी-किसी जगह पर ये रह जाते हैं, छींटे (निशान)। क्योंकि रास्ता पूर्ण नहीं हुआ है तब तक कुछ छींटे रहते हैं। तभी पूर्ण नहीं हो पाता न! उसके लिए नहीं, लेकिन जो छींटे रह गए हैं, उनके अलावा क्या है? तो कहते हैं, 'सबकुछ सहज है।' और आपको भी कुछ-कुछ सहज होता जा रहा है, लेकिन छींटे ज़रा ज़्यादा हैं। इसलिए आपको ऐसा ही लगता है कि लाल (संलग्न) ही दिख रहा है। प्रश्नकर्ता : उसी को चित्रण कहते हैं न? दादाश्री : वह तो अभी तक हिसाब नहीं चुकाया है। चित्रण का तो ऐसा है न कि जिसे प्रोजेक्ट किया होता है, उसी चीज़ का चित्रण आता है। प्रोजेक्ट! उस चित्रण के रूपक में आने के बाद उससे कोई लेना-देना नहीं रहता इसका। ये जितने हद तक सहज नहीं हुए हैं वे सभी छींटेवाले हैं, काफी कुछ सहज हो गया है। सहज स्वभाव से ही बरतते हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् एक जगह पर जो पूरा अहंकार यों ही साधारण रूप से बरतता है, यों ही हर समय उसके बजाय हमारा कम या ज़्यादा बरतता है। दादाश्री : आपको पाँच-पाँच मिनट में थोड़ा ब्रेक डाउन हो जाता है। फिर बढ़ता जाता है। जैसे-जैसे सहजता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह कम होता जाता है। जब से ज्ञान दिया, तभी से सहजता बढ़ती जाएगी और असहजता कम होती जाएगी। और मूलतः फिर सारांश क्या है? अंतिम