________________ 426 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) तो फिर भगवान। देह सहज भाव से किसी को धौल लगा रहा हो तो भी भगवान! प्रश्नकर्ता : आत्मा की सहजता को भगवान नहीं कहते? दादाश्री : आत्मा की सहजता तो, आत्मा तो खुद सहज ही है। यह बाहर का सहज हो जाए न तो खुद सहज ही है। बाहर का सहज नहीं हो पाता न। प्रश्नकर्ता : यह ठीक से समझ में नहीं आया अभी तक। दादाश्री : आत्मा सहज हो जाए तो देह अपने आप सहज हो जाती है, यानी इसका मतलब है कि व्यवहार आत्मा सहज हो जाए तो देह सहज हो ही जाएगी लेकिन मूल आत्मा तो सहज है। यह व्यवहार आत्मा का ही झंझट है सारा। प्रश्नकर्ता : आपने कहा है न, कि सहज भाव से धौल लगाना, तो क्या धौल सहज भाव से हो सकती है? दादाश्री : हाँ, हो सकती है धौल। प्रश्नकर्ता : दादा जो सब को प्रसादी देते हैं न, बूट की.... दादाश्री : वह सब सहज भाव से है। सहज भाव मतलब 'मैं मार रहा हूँ' ऐसा भान नहीं होता, 'मैं मार रहा हूँ' ऐसा ज्ञान नहीं होता और 'मैं मार रहा हूँ' ऐसी श्रद्धा नहीं होती, उसे कहते हैं सहज भाव। और जब हम सहज भाव से मारते हैं तो दु:ख नहीं होता किसी को! प्रश्नकर्ता : ज्ञानी के अलावा और कोई सहज भाव से धौल लगा सकता है? दादाश्री : हाँ, सहज भाव हो, तो लगा सकता है। प्रश्नकर्ता : यदि ज्ञानी के अलावा और कोई धौल लगाए तो सामनेवाले को दुःख हुए बगैर रहता ही नहीं।