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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
सामान्य ज्ञान से वीतरागता विशेष ज्ञान से गड़बड़ होती है और सामान्य ज्ञान से वीतरागता रहती है। हम यदि जंगल में सभी पेड़ों को शुद्धात्मा भाव से देखते-देखते चलें तो वह सामान्य भाव कहलाता है। इससे सभी आत्माओं के दर्शन होते हैं, इससे वीतरागता रहती है।
हम वकील ढूँढने निकले हों तो उसके बाल देखते हैं या उसकी वकालत देखते हैं? हाँ, यहाँ पर अगर काले चश्मे पहनकर आए तो तो उस चश्मे से हमें क्या? हमें यही देखना है कि उसमें वकालत का गुण है या नहीं? उसी तरह हमें आत्मा देखने हैं।
ज्ञानीपुरुष यों जा रहे हों, तब वे ऐसा नहीं देखते हैं कि यह स्त्री है या यह पुरुष है या फिर यह मोटा है, यह पतला है अथवा लूला है या लंगड़ा है, ऐसा सब नहीं देखते हैं। तो फिर वे क्या देखते हैं?' सामान्य भाव से आत्मा ही देखते हैं।
विशेष भाव नहीं रखते। विशेष भाववाला क्या करता है? 'देखो न लंगड़ा है!' उससे आगे का देखना रुक जाता है। एक ही देखा और लाभ एक का ही मिला और सौ लोगों का लाभ गया। विशेष भाव किया। अतः हम सबकुछ सामान्य भाव से देखते हैं। विशेष परिणाम को नहीं देखते कि ये अक्लमंद हैं और ये बेअक्ल हैं और ये मूर्ख हैं और ये गधे हैं, ऐसी झंझट में हम कहाँ पड़ें।
प्रश्नकर्ता : इसीलिए आप वह अभ्यास करने को कहते हैं न कि एक घंटे हर एक को शुद्धात्मा रूप से देखने का अभ्यास करना चाहिए।
दादाश्री : हाँ, जितना-जितना अभ्यास करेंगे न तो उससे फिर विशेष परिणाम खत्म हो जाएँगे। विशेष परिणाम से अभिप्राय उत्पन्न होते हैं। यह अंधा है और यह लूला है। वह तो पुद्गल की बाज़ी है।
मुकाम स्वदेश में ही जहाँ आपका मुकाम है, वही आपका देश है। किसी से पूछे तो वे