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[३.२] दर्शन सामान्य भाव से, ज्ञान विशेष भाव से
दर्शन और ज्ञान की विशेष स्पष्टता हम यहाँ से आणंद जा रहे हों रोड से तो इस तरफ पेड़ और दूसरी तरफ भी पेड़, इस तरफ खेत में कुछ बोया हुआ हो, उस तरफ भी खेत में कुछ बोया हुआ होता है। दर्शनवाला क्या करता है? वह सभी पेड़ों को देखता रहता है। और ज्ञानवाला क्या करता है? यह नीम है, केथ (कठफल) देखता है, तो बाकी का सब देखना रह जाता है। एक समय में सभी काम नहीं हो सकते। हम सभी पेड़ों को पहचानें नहीं तब तक अगर कोई पूछे कि, 'वहाँ क्या दिखा आपको?' तब कहते हो, 'बहुत से पेड़।' तब वह पूछे, 'लेकिन कौन से पेड़?' तो आप कहते हो, 'भाई, वह मुझे मालूम नहीं है।' तब तक वह देखना कहलाता हैं। और फिर उसे बताए कि वह नीम है, तब वह जानना कहलाता है। अब दुनिया के लोग कभी इस हद तक तो गहराई में उतरे ही नहीं हैं। तो फिर यह उनकी मति में आएगा ही कैसे? वहाँ तक तो तीर्थंकरों की ही (दृष्टि) पहुँच सकती है। हालांकि यह मति का ज्ञान नहीं है, यह केवलज्ञान का ज्ञान है।
प्रश्नकर्ता : और इस भाषा का भी नहीं है। दर्शन और दृश्य भी इस भाषा से आगे का ज्ञान है।
दादाश्री : बहुत आगे का ज्ञान है यह तो। यह तो ऐसा है न कि हम इसे बहुत नीचे उतार लाए हैं। ज़रूरत भी है न लेकिन। नीचे तो लाना पड़ेगा न? लेकिन तीर्थंकरों की जो यह खोज है, इसे तो देखकर ही मुझे आश्चर्य होता है कि 'ओहोहो! ऐसी खोज!' 'दर्शन और ज्ञान, जानना और देखना, अलग कर दिया!' अरे भला एक ही कहा होता तो क्या बुरा था?