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आप्तवाणी-८
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दादाश्री : इन दूसरे सभी अनुभवों के उस पारवाली स्थिति ही है। जैसे यह अनुभव इस पार है, तो वह अनुभव उस पार का होता है। अर्थात् आत्मा का एक भी अंश उसमें नहीं होता और उसका एक भी अंश इसमें (आत्मा में) नहीं होता। आत्मा का अनुभव बिल्कुल न्यारा ही रहता है। बिल्कुल जुदा ही, उसमें तो कोई फ़र्क नहीं। फिर भी 'पहले अनुभव होना चाहिए।' ऐसा इसीलिए कहा जाता है कि उसे प्रतीति बैठने का कारण मिले और प्रतीति बैठी कि आत्मा जैसी वस्तु है और वह पहले की तुलना में कुछ अलग है। नहीं तो तब तक वस्तु का अस्तित्व भी मान्य नहीं हो पाता। यानी कि अनुभव तो होना ही चाहिए।
बात गेड़ में आ जाए तब... मैं जो कहना चाहता हूँ उसकी गेड़ (अच्छी तरह समझ जाना) बैठना, यानी मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह पूरी तरह समझ में आ जाए। और 'टू द पोइन्ट' पहुँच जाए, उसे मैं गेड़ पड़ी कहता हूँ। लोग नहीं कहते कि, 'अभी तक गेड़ नहीं बैठती?'
यानी कि जो 'मैं' समझाना चाहता हूँ, वही 'वस्तु' उसे उसी स्वरूप में समझ में आए, उसे 'गेड़ बैठी' कहते हैं। अब मेरा 'व्यू पोइन्ट' अलग, उसका 'व्यू पोइन्ट' अलग, इसलिए गेड़ बैठने में देर लगती है। लेकिन गेड़ बैठनी चाहिए, तब काम होगा!
प्रश्नकर्ता : यानी आप जिन शब्दों का उपयोग करते हैं, वह बात पहुँचनी चाहिए।
दादाश्री : हाँ, बात पहुँचनी चाहिए। इसलिए हम कहते हैं न, कि बात पहुँचती नहीं है 'उसे।' अब यदि उसका' 'लेवल' थोड़ा ऊँचा आए, 'मेरा' 'लेवल' थोड़ा नीचा आए, तो 'उसे' बात ‘फ़िट' हो जाएगी। नहीं तो 'मैं' ऊँचाई से बात बोलता रहँ तो भी बरकत नहीं आएगी, इसलिए बात ‘फ़िट' करने के लिए 'लेवल' के अनुसार बात करनी पड़ती है।
यानी कि गेड़ बैठे बगैर तो कोई काम होता ही नहीं। इसमें सभी को गेड़ ही बैठती है न। गेड़ बैठी कि फिर शुरू हो गया।