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आप्तवाणी-८
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दृश्य है और ज्ञेय है। अब आत्मा का प्रकाश ऐसा है न, कि जहाँ पर ज्ञेय हैं और दृश्य हैं, वहीं तक प्रकाश जाता है।
जिस प्रकार इस घड़े में एक लाइट रखी हुई हो, उसके ऊपर एक ढक्कन लगा दें, तो उजाला बाहर नहीं आएगा, सिर्फ उस घड़े को ही लाइट मिलेगी। फिर घड़े को फोड़ दें, तो वह लाइट कहाँ तक जाएगी? जितने भाजन में रखा हुआ होगा, जितने बड़े रूम में रखा हुआ हो उतने रूम में प्रकाश फैलेगा।
उसी प्रकार आत्मा यदि निरावृत हो जाए न, तो पूरे लोकालोक में फैल जाए, ऐसा है। लेकिन आत्मा सिर्फ इस लोक जितना ही प्रकाश देता है। अलोक में ज्ञेय नहीं हैं, इसलिए आत्मा का, ज्ञाता का प्रकाश वहाँ पर जाता ही नहीं। लोक है और लोक के कारण दूसरे भाग को अलोक कहा है। अलोक में बिल्कुल भी ज्ञेय नहीं हैं, सिर्फ आकाश ही है। अब ज्ञेय नहीं हैं, इसलिए वहाँ पर आत्मा प्रकाश नहीं कर सकता अर्थात् आत्मा ऐसा है कि पूरे लोक को प्रकाशमान कर सके, और वह भी हर एक आत्मा, लेकिन यदि आवरण टूटें तो।
जिस प्रकार घड़े में लाइट रखी हो, फिर उस घड़े में जितने छेद करें, उतना उजाला थोड़ा-थोड़ा करके बाहर आता जाता है। उसी तरह इन पाँच इन्द्रियों से यह उजाला बाहर आता है। अब पूर्ण दशा में यदि कभी यह देह छूट जाए तो यह उजाला पूरे जगत् में व्याप्त हो जाएगा, ऐसा उसका स्वभाव है।
अभी तो देह में ही है। अर्थात् पहले स्वरूप के ज्ञान को जानना, उसे ज्ञानावरण का टूटना कहा जाता है। फिर तो अपने आप ही जैसे-जैसे सभी कर्म हटते जाते हैं, वैसे-वैसे हल आता जाता है। आत्मा के अनंत प्रदेशों पर कर्म के आवरण हैं। जैसे-जैसे कर्मों के निकाल होते जाते हैं, वैसे-वैसे आवरण टूटते जाते हैं।
__ प्रमेय के अनुसार प्रमाता-आत्मा अतः सर्वव्यापक का अर्थ अलग है। जैसा ये लोग जानते हैं, वैसा