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आप्तवाणी-८
दादाश्री : जिस काल में इस अर्थ की ज़रूरत रही होगी, उस काल में यह अर्थ किया होगा। लेकिन ‘एक्जेक्टली', यह जगत् कभी भी मिथ्या था ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : तो माया के कारण मिथ्या लगता होगा?
दादाश्री : यह माया नहीं है! यह माया तो किसे कहते हैं कि अभी जादूगरी करे न, और हाथ में रुपये दिखाए, फिर भी आप पर कुछ भी असर नहीं हो, उसे माया कहते हैं। जिसे लोग माया समझते हैं न, ऐसी माया नहीं है यह जगत्।
माया का मतलब क्या है कि 'वस्तु' को यथार्थ रूप में नहीं समझना, उसे माया कहते हैं। यह माया ही 'जैसा है वैसा' यथार्थ रूप से समझने नहीं देती, उसे माया कहते हैं। लोग तो माया को क्या समझते है? कहेंगे, 'ऐसा ही है यह सारा, यह माया ही है' लेकिन ऐसा नहीं है। माया अर्थात् जो 'वस्तु' को यथार्थ रूप से समझने नहीं दे, वही माया है।
बाकी ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या, वह तो त्यागी बनाने के लिए ये सब बोले थे कि 'भाई, यह सब मिथ्या है, इस मिथ्या में से क्या पाना है? अब त्यागी बनकर, त्याग करके कुछ आगे बढ़ो।' इस हेतु से लोगों ने ऐसा कहा था। लेकिन वास्तव में तो यह जगत् 'जैसा है वैसा' ही उसे कहना चाहिए, तभी फिर उस रास्ते पर चलना रास आएगा न! वर्ना सभी तो इसे मिथ्या नहीं मानते हैं न! कुछ ही लोग मिथ्या मानते हैं, ऐसे बोलते ज़रूर हैं, लेकिन कोई मिथ्या मानता नहीं है। इस बच्चे के हाथ में पतंग दे दी, तो उसे क्या वह फेंक देगा? यदि हम कहें कि मिथ्या है, इसे फेंक दे।' तो फेंक देगा? वह नहीं फेंकेगा। अतः जगत् 'रिलेटिव' सत्य है। हाँ, उसे कोई ऐसा नहीं कहता कि यह 'रियल' सत्य है। क्योंकि यह पतंग तो तुरन्त फट जाती है न! और उस घड़ी अपने आप ही प्रेम छूट ही जाता है न!! जब कि जहाँ पर अविनाशी तत्व है, वहाँ पर फटने की बात ही नहीं है न!!!
अत: यह जगत् मिथ्या भी नहीं है। जगत् 'रिलेटिव करेक्ट' है और आत्मा