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आप्तवाणी-७
जाता है और अधिकता हो जाए तब सूजन हो जाती है। सूजन हो तब वह समझता है कि मैं अब मोटा हो गया। अरे, यह तो सूजन चढ़ी है! यानी भराव नहीं हो वह उत्तम है और उसके जैसा कोई पुण्यानुबंधी पुण्य नहीं है। मिल जाए तो गिनने की झंझट होती रहेगी न! दस हज़ार रुपये हों, तो रुपया-रुपया करके दस हज़ार गिनने जाए, तो कब अंत आएगा? और फिर एकदो की भूल आई तो फिर वापस गिनेगा! अच्छी तरह गिनने के बाद ही सोता है। तब एक व्यक्ति मुझे कहता है कि, 'आप क्या करते हो?' मैंने कहा कि, 'यह तो दस हज़ार की बात है, लेकिन सौ के नोट के छुट्टे किसी दुकान से लेने हों, तो जब दुकानदार सौ गिनकर दे, तब मैं जेब में रख लेता हूँ।' कभी दुकानदार कहे कि, 'साहब, गिन लीजिए।' मैं कहता हूँ कि, 'आप पर मुझे बहुत विश्वास है।' अगर निन्यानवे होंगे तो भी एक रुपया तो गिनने की मेहनत का जाएगा, लेकिन वह गिनने में टाइम चला जाएगा न! इसलिए भले ही रुपया कम हो, लेकिन झंझट नहीं न! इसलिए मैं कभी भी रुपये गिनता ही नहीं। सौ के नोट के सौ रुपये हों तो उन्हें गिनते-गिनते तो दस मिनट चले जाएँगे। फिर जीभ को ऐसे अंगूठा लगाता रहता है! यानी ऐसा करते-करते दो रुपये कम होंगे तो चलेगा। उसमें फिर यदि एक-दो कम होंगे न, तो सौ रुपये की रेज़गारी देनेवाले से लड़ पड़ेगा कि 'ये आपने सौ रुपये दिए, लेकिन पूरे नहीं है, इसमें दो कम हैं।' तब वह कहेगा कि, 'आप वापस गिनिये। बेकार किच-किच मत करो, ज्यादा माथापच्ची मत करो, नहीं तो लाओ मेरे रुपये वापस।' तब वह वापस नहीं देता और वापस गिनने बैठ जाता है! अरे, लेते समय कलह, किसी को दे तब भी कलह, स्मशान में जाते समय भी कलह! जन्म हुआ तभी से कलह, कलह और कलह!! आया तब 'ऊँवा, ऊँवा' करता है और जाते समय 'डॉक्टर साहब, मुझे बचाइए, बचाइए' करेगा! कब तू बगैर कलह के रहा है! तेरा एक दिन भी आनंद में नहीं बीता! फिर भी खुद परमात्मा है। वह भले