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चिंता से मुक्ति (५)
घबराने का कोई कारण नहीं है। इसलिए मैंने 'व्यवस्थित' कहा है, एक्जेक्ट 'व्यवस्थित' है। इसलिए, जो हो चुका है उसे तो ठीक है, करेक्ट है, ऐसा ही कहना।
व्यथा अलग, चिंता अलग प्रश्नकर्ता : चिंता, वह अहंकार है, तब फिर जो व्यथित है वह चिंता करे तो उसमें अहंकार शायद न भी हो और सिर्फ व्यथा हो तो?
दादाश्री : व्यथा अलग है। व्यथा, वह अलग चीज़ है और चिंता वह भी अलग है। चिंता यानी भविष्य की सभी योजना करता है और व्यथित होना, वह तो उसका कोई ओबस्ट्रक्शन (रुकावट) है, इसलिए व्यथित हो गया है। व्यथित कब होता है? उसे कोई रुकावट आ जाए तब। यानी व्यथित होने में हर्ज नहीं है, व्यथित तो बड़े-बड़े संत पुरुष भी हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो चिंता के साथ अहंकार किस तरह है?
दादाश्री : 'मैं नहीं होऊँगा तो नहीं चलेगा,' उसे ऐसा लगता है। 'यह मैं ही कर रहा हूँ, मैं नहीं करूँगा तो नहीं होगा। अब यह हो सकेगा? सुबह क्या होगा?' ऐसे करके चिंता करता है।
कहीं भी भरोसा ही नहीं? अपने हिन्दुस्तान के लोग तो इतने अधिक चिंतावाले हैं कि ये सूर्यनारायण यदि एक दिन की छुट्टी ले लें और ऐसा कहें कि 'फिर कभी छुट्टी नहीं लूँगा' तो वे यदि छुट्टी ले लें तो दूसरे दिन लोग शंका करेंगे कि कल सूर्यनारायण आएँगे या नहीं आएँगे, सुबह होगी या नहीं होगी? यानी नेचर पर भी भरोसा नहीं है, खुद अपने आप पर भी भरोसा नहीं है, भगवान पर भी भरोसा नहीं है। किसी चीज़ पर भरोसा नहीं, खुद की वाइफ पर भी भरोसा नहीं! अहमदाबाद के एक सेठ की वाइफ को यात्रा में