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आप्तवाणी-६
प्रश्नकर्ता : नहीं, वे तो अभी तक नहीं हुए ।
दादाश्री : यानी वे लक्षण उत्पन्न हो जाएँ तब फिर समझना कि आप आत्मस्वरूप हो गए हो। अभी आप 'चंदूभाई' स्वरूप हो ! अभी कोई बोले कि, ‘इस डॉक्टर चंदूभाई ने मेरा केस बिगाड़ दिया।' तब फिर आपको यहाँ बैठे-बैठे असर होगा या नहीं होगा?
प्रश्नकर्ता : असर तो होगा ।
दादाश्री : इसलिए आप 'चंदूभाई' हो ! और इस 'अंबालाल' को कोई गाली दे, तो ‘मैं' इस 'अंबालाल' से कहूँगा कि 'देखो, आपने कहा होगा, इसलिए यह आपको गालियाँ दे रहा है ! ' हमें बिल्कुल जुदापन का ही अनुभव होता है। आपका भी जुदा हो जाएगा, तब फिर पज़ल' सोल्व हो जाएगी। नहीं तो रोज़ 'पज़ल' खड़ी होती ही रहेंगी !
प्रश्नकर्ता : ये 'पज़ल' हैं, वे सब जीवन के साथ गुंथी हुई हैं या वे कर्म भोगने के लिए हैं?
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दादाश्री : वह नासमझी है । ये मनुष्य बेसुध हैं! किससे बेसुध हैं? 'खुद के स्वरूप से बेसुध हैं!' 'खुद कौन है?' उसका भान ही नहीं है ! कितना बड़ा आश्चर्य है! आपको शरम नहीं आई, यह बात सुनते हुए? खुद अपने आप से ही अनजान है । शरम आए, ऐसा है न? और फिर वापस बाहर निकलता है, तब कितना अधिक रौब मारता है । अरे, तुझे स्वरूप का भान नहीं, तो क्यों बिना बात के उछलकूद करता है? खुद खुद से गुप्त रह ही नहीं सकता न? आप खुद अपने आप से गुप्त रहे हुए हो, तो यह कैसी बात हुई? इसलिए, भान में लाने के लिए मैं यह विज्ञान देना चाहता हूँ। 'यह' ज्ञान नहीं है, 'यह' विज्ञान है। ज्ञान क्रियाकारी नहीं होता है । यह 'विज्ञान' क्रियाकारी है । यह ज्ञान लेने के बाद आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता । ज्ञान ही करता रहता है। विज्ञान हमेशा चेतन होता है और शास्त्रज्ञान, वह शब्दज्ञान है। वह क्रियाकारी नहीं हो सकता । बहुत हुआ तो वे आपको सद्-असद् का विवेक करवाएगा। सद्-असद् का विवेक अर्थात् क्या कि यह 'सच्चा' है या यह 'गलत' है, ऐसा भान करवाएगा और यह तो 'अक्रम विज्ञान' है।