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आप्तवाणी-६
दादाश्री : 'समभाव से निकाल' हो जाए तो कल्याण हो जाए।
प्रश्नकर्ता : आपने तो कृपा की जब कि हमने अपनी 'वक्रता' की, परंतु वे चोखे (खरा, अच्छा, शुद्ध, साफ) हो गए, यह हकीकत है।
दादाश्री : आप दादा के साथ इतने जुड़े रहे, वह बहुत हो गया। एक दिन इसका सार समझ में आ जाएगा कि सच्चा था यह।
प्रश्नकर्ता : अरे, एक दिन होता होगा? आज से ही, कल किसने देखा है? इसलिए ऐसी शक्ति दीजिए कि जो थोड़े-बहुत कर्म बाकी बचे हैं, उन्हें हम निपटा सकें और बुद्धि उल्टे रास्ते नहीं जाए।
दादाश्री : यहाँ आते रहो न, एक-एक घंटे जितना, तो उतना ही वह विलय होते-होते खत्म हो जाएगा।
'ज्ञान' से शंका का शमन
प्रश्नकर्ता : बहुत लोग ऐसे होते हैं कि जिनके लिए अभिप्राय रहते हैं कि 'यह व्यक्ति अच्छा है, यह लंपट है, यह लुच्चा है, अरे यह तो लूटने ही आया है।'
दादाश्री : अभिप्राय बंधते हैं, वही बंधन है। हमारी जेब में से कल कोई रुपये निकाल ले गया हो और आज वह वापस यहाँ पर आए तो हमें शंका नहीं रहती कि वह चोर है। क्योंकि कल उसके कर्म का उदय वैसा था, आज उसका उदय कैसा होगा, वह कैसे कह सकते हैं?
प्रश्नकर्ता : लेकिन प्राण और प्रकृति साथ में जाते हैं।
दादाश्री : उस प्राण और प्रकृति को नहीं देखना है। हमें उसके साथ लेना-देना नहीं है, वह कर्म के अधीन है बेचारा। वह उसके कर्म भोग रहा है, हम अपने कर्म को भोग रहे हैं। हमें सावधान रहना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता : उस समय शायद उसके प्रति का समभाव रहता है या न भी रहता।