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आप्तवाणी-६
प्रश्नकर्ता : विचार नहीं करने हैं?
दादाश्री : विचार नहीं करने हैं। विचार आएँ उन्हें देखते रहना, और फिर काम करते रहो, विचार करने की ज़रूरत नहीं है। विचार तो आएँगे ही। मनुष्य में यदि विचार बंद करने की शक्ति होती तो सारे विचार बंद कर भी देता। आपके खराब विचार आप बंद कर सकते हो?
प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : तब आप ही सोचो.... क्या कर सकते हो? प्रश्नकर्ता : तो विचारों का मूल क्या है? दादाश्री : गाँठे हैं मन की। प्रश्नकर्ता : ग्रंथि का मूल क्या है?
दादाश्री : पहले जो विचार आए थे उनमें आप तन्मयाकार हो गए थे, उससे ग्रंथि बनी। जिन विचारों में तन्मयाकार हुए उनकी ग्रंथि पड़ी।
आशय के अनुसार भूमिका प्रश्नकर्ता : आशय और विचार में क्या फर्क है? क्या आशय में से विचारों का उद्भव होता है?
दादाश्री : विचार और आशय अलग हैं। आशय तो सार है। जैसा हर एक जीव के आशय में होता है, वैसी उसे भूमिका मिलती है।
प्रश्नकर्ता : ग्रंथियाँ आशय के अनुसार बनती हैं?
दादाश्री : ग्रंथियाँ अलग चीज़ है। ग्रंथि का और आशय का कोई लेना-देना नहीं है। मूल में पहले विचार हैं। उनमें से इच्छाएँ होती हैं, और इच्छा में से आशय उत्पन्न होता है, और आशय में से उसे उसकी भूमिका मिलती है। यह आपके आशय के अनुसार देह मिला है। दूसरे सभी एडजस्टमेन्ट मिलते हैं। अभी आपको शायद वे ठीक नहीं भी लगें, लेकिन है सारा आपके आशय के अनुसार ही।