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आप्तवाणी-६
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सबकुछ इकट्ठा हो जाए, तब उसके अनुसार बुद्धि का आशय उत्पन्न होता है। परंतु भीतर मूल भावना ज़रूर होती है। अपनी दानत चोर हो, तभी वैसे सब संयोग मिलते हैं!
'अहंकार' भी कुदरती रचना प्रश्नकर्ता : 'नेसेसिटी इज द मदर ऑफ इन्वेन्शन'(आवश्यकता आविष्कार की जननी है) वह गलत बात है?
दादाश्री : यह शब्दप्रयोग ही है, वर्ना यह सबकुछ कुदरत करवाती
प्रश्नकर्ता : तो फिर इस 'रिलेटिव' प्रगति का आधार क्या है?
दादाश्री : सबकुछ ही कुदरत करवाती है। जैसे-जैसे काल बदले, वैसे ही द्रव्य बदलता है, द्रव्य बदले वैसे-वैसे भाव बदलते हैं और खुद इगोइज़म करता है, 'मैंने किया!' यह इगोइज़म भी कुदरत करवाती है,
और जो इस इगोइज़म में से छूट गया वह इसमें से छूट गया। यह प्रगति कुदरत करवाती है, वर्ना जितने शब्दप्रयोग हैं वे सभी इगोइज़म है।
पहले के लोगों ने प्रारब्ध कहा, इसलिए ही तो यह दशा हुई है। इसलिए अपने इस साइन्स में किसी को प्रारब्ध बताया ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : 'व्यवस्थित' में होगा तो होगा, ऐसा नहीं?
दादाश्री : वह तो आपके समाधान के लिए कहते हैं, वर्ना सच में तो ऐसा कहते हैं कि काम करते जाओ। सारा परिणाम 'व्यवस्थित' के हाथ में है, इसलिए सोचना मत, घबराना मत। ऑर्डर हो गया कि लडाई करो, फिर लड़ाई करते जाओ, फिर परिणाम से घबराना मत।
प्रश्नकर्ता : तो हमें कोई योजना बनानी ही नहीं चाहिए?
दादाश्री : योजना तो पहले गढ़ी जा चुकी है। फिर जब भी काम आए तब काम करते जाओ। बिगिनिंग शुरू हो, उससे पहले तो योजना गढ़ी जा चुकी होती है!